अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - जगती
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
इन्द्रा॑सोमा॒ परि॑ वां भूतु वि॒श्वत॑ इ॒यं म॒तिः क॒क्ष्याश्वे॑व वाजिना। यां वां॒ होत्रां॑ परिहि॒नोमि॑ मे॒धये॒मा ब्रह्मा॑णि नृ॒पती॑ इव जिन्वतम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमा । परि॑ । वा॒म् । भू॒तु॒ । वि॒श्वत॑: । इ॒यम् । म॒ति: । क॒क्ष्या᳡: । अश्वा॑ऽइव । वा॒जिना॑ । याम् । वा॒म् । होत्रा॑म् । प॒रि॒ऽहि॒नोमि॑ । मे॒धया॑ । इ॒मा । ब्रह्मा॑णि । नृ॒पती॑ इ॒वेति॑ नृ॒पती॑ऽइव । जि॒न्व॒त॒म् । ४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमा परि वां भूतु विश्वत इयं मतिः कक्ष्याश्वेव वाजिना। यां वां होत्रां परिहिनोमि मेधयेमा ब्रह्माणि नृपती इव जिन्वतम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमा । परि । वाम् । भूतु । विश्वत: । इयम् । मति: । कक्ष्या: । अश्वाऽइव । वाजिना । याम् । वाम् । होत्राम् । परिऽहिनोमि । मेधया । इमा । ब्रह्माणि । नृपती इवेति नृपतीऽइव । जिन्वतम् । ४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
विषय - 'मति' साप'कक्ष्या'
पदार्थ -
१. हे (इन्द्रासोमा) = जितेन्द्रिय व सौम्य [विनीत] पुरुषो! (इयम् मति:) = यह मननीय स्तुति, मननपूर्वक किया गया प्रभुस्तवन (वाम्) = आपके (विश्वत:) = चारों और (परिभूतु) = हो। यह आपको इसप्रकार घेरे रहे (इव) = जैसेकि (कक्ष्या) = कमरबन्द (वाजिना अश्वा) = शक्तिशाली घोड़ों को चारों ओर से घेरनेवाला होता है। यह कक्ष्या घोड़ों को सदा सन्नद्ध रखती है, इसी प्रकार यह स्तुति इन्द्र और सोम को सन्नद्ध रक्खे। २. (याम्) = जिस (होत्राम्) = वाणी को (मेधया) = बुद्धि के साथ (वां परिहिनोषि) = आपके लिए प्रेरित करता है, (उभा इमा ब्रह्माणि) = इन ज्ञान की वाणियों को (नृपती इव जिन्वतम्) = [ना चासौ पतिश्च] अग्रगतिवाले व अपने स्वामियों की भाँति अपने अन्दर प्रेरित करो। 'ना' बनो-अग्नगतिवाले बनो, 'पति' अपने स्वामी बनो और ज्ञान-वाणियों को प्राप्त करो।
भावार्थ -
प्रभु का स्तवन हमें इसप्रकार धेरै रहे जैसेकि कमरबन्द घोड़े को घेरे रहता है। हम अग्नगतिवाले व अपने स्वामी बनकर ज्ञान की वाणियों को अपने अन्दर प्रेरित करें।
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