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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    सूक्त - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - जगती सूक्तम् - काम सूक्त

    अस॑र्ववीरश्चरतु॒ प्रणु॑त्तो॒ द्वेष्यो॑ मि॒त्राणां॑ परिव॒र्ग्यः स्वाना॑म्। उ॒त पृ॑थि॒व्यामव॑ स्यन्ति वि॒द्युत॑ उ॒ग्रो वो॑ दे॒वः प्र मृ॑णत्स॒पत्ना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑र्वऽवीर: । च॒र॒तु॒ । प्रऽनु॑त्त: । द्वेष्य॑: । मि॒त्राणा॑म् । प॒रि॒ऽव॒र्ग्य᳡: । स्वाना॑म् । उ॒त । पृ॒थि॒व्याम् । अव॑ । य॒न्ति॒ । वि॒ऽद्युत॑: ।उ॒ग्र: । व॒: । दे॒व: । प्र । मृ॒ण॒त् । स॒ऽपत्ना॑न् ॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असर्ववीरश्चरतु प्रणुत्तो द्वेष्यो मित्राणां परिवर्ग्यः स्वानाम्। उत पृथिव्यामव स्यन्ति विद्युत उग्रो वो देवः प्र मृणत्सपत्नान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असर्वऽवीर: । चरतु । प्रऽनुत्त: । द्वेष्य: । मित्राणाम् । परिऽवर्ग्य: । स्वानाम् । उत । पृथिव्याम् । अव । यन्ति । विऽद्युत: ।उग्र: । व: । देव: । प्र । मृणत् । सऽपत्नान् ॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. हमारा शत्रु (असर्ववीर:) = सब वीरों से रहित हुआ-हुआ (प्रणुत:) = परे धकेला हुआ (चरतु) = इधर-उधर भटके। यह (मित्राणां द्वेष्य:) = सब मित्रों का द्वेष्य [अप्रीति योग्य] हो जाए। (स्वानां परिवर्य:) = अपनों का छोड़ने योग्य हो जाए, अर्थात् अपने लोग भी इसे छोड़ जाएँ। २. (उत) = और (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (विद्युत:) = विशिष्ट दीसिवाले अस्त्र हमारे शत्रुओं का (अवस्यन्ति) = अन्त कर देते हैं। वह (उग्रः देव:) = शत्रुभयंकर विजेता प्रभु (व:) = तुम्हारे (सपत्नान् प्रमृणत्) = शत्रुओं को कुचल डाले।

    भावार्थ -

    हमारे शत्रु वीरों से रहित, मित्रों के द्वेष्य व अपनों से छोड़ने योग्य हों। हमारे दीस अस्त्र उनका अन्त करें और प्रभु उन्हें कुचल देने का अनुग्रह करें।

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