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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
    सूक्त - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - काम सूक्त

    अ॒ग्निर्यव॒ इन्द्रो॒ यवः॒ सोमो॒ यवः॑। य॑व॒यावा॑नो दे॒वा य॑वयन्त्वेनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । यव॑: । इन्द्र॑: । यव॑: । सोम॑: । यव॑: । य॒व॒ऽयावा॑न: । दे॒वा: । य॒व॒य॒न्तु॒ । ए॒न॒म् ॥२.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्यव इन्द्रो यवः सोमो यवः। यवयावानो देवा यवयन्त्वेनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । यव: । इन्द्र: । यव: । सोम: । यव: । यवऽयावान: । देवा: । यवयन्तु । एनम् ॥२.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (अग्नि:) = वे अग्रणी प्रभु (यवः) = यव हैं-वे हमसे बुराइयों को पृथक् करनेवाले हैं। (इन्द्र: यवः) = वे शत्रविद्रावक प्रभु हमसे बुराइयों को दूर करते हैं। (सोमः यव:) = सोम [शान्त] प्रभु बुराइयों को हमसे दूर करनेवाले हैं। हम आगे बढ़ने की भावनावाले [अग्नि], जितेन्द्रिय [इन्द्र] व शान्त-विनीत [सोम] बनें। ऐसा बनकर ही हम सब बुराइयों को अपने से दूर कर पाएंगे। २. (देवा:) = माता, पिता, आचार्य व अतिथि आदि देव (यवयावान:) = [यवाः च यावान: च] बुराइयों को पृथक्क रनेवाले व शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं [या गती]। (एनम्) = इस अपने उपासक को ये देव (यावयन्तु) = सब शत्रुओं से पृथक् करें।

    भावार्थ -

    हम 'अग्नि, इन्द्र व सोम' इन नामों से प्रभु-स्मरण करते हुए आगे बढ़ें, जितेन्द्रिय बनें व शान्त वृत्तिवाले हों। इसप्रकार हम बुराइयों को अपने से पृथक् कर पाएंगे। माता-पिता, आचार्य व अतिथियों का सान्निध्य हमें शत्रुओं को दूर भगाने में सशक्त करे।

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