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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    सूक्त - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - काम सूक्त

    ज्याया॑न्निमि॒षतोसि॒ तिष्ठ॑तो॒ ज्याया॑न्त्समु॒द्राद॑सि काम मन्यो। तत॒स्त्वम॑सि॒ ज्याया॑न्वि॒श्वहा॑ म॒हांस्तस्मै॑ ते काम॒ नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्याया॑न् । नि॒ऽमि॒ष॒त: । अ॒सि॒ । तिष्ठ॑त: । ज्याया॑न् । स॒मु॒द्रात् । अ॒सि॒ । का॒म॒ । म॒न्यो॒ इति॑ । तत॑: । त्वम् । अ॒सि॒ । ज्याया॑न् । वि॒श्वहा॑ । म॒हान् । तस्मै॑ । ते॒ । का॒म॒ । नम॑: । इत् । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्यायान्निमिषतोसि तिष्ठतो ज्यायान्त्समुद्रादसि काम मन्यो। ततस्त्वमसि ज्यायान्विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्कृणोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्यायान् । निऽमिषत: । असि । तिष्ठत: । ज्यायान् । समुद्रात् । असि । काम । मन्यो इति । तत: । त्वम् । असि । ज्यायान् । विश्वहा । महान् । तस्मै । ते । काम । नम: । इत् । कृणोमि ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 23

    पदार्थ -

    १. (यावती:) = जितने भी (भृङ्गा:) = भौरे, (जत्व:) = चमगादड़, (कुरूरव:) = चौलें हैं, (यावती:) = जितने भी (वघाः) = टिड्डी आदि जन्तु हैं, जितने भी (वृक्षसमे:) = वृक्षों पर सरकनेवाले कीट (बभूवुः) = हैं उन सबकी सम्मिलित शक्ति से भी आप महान् हैं। हे (काम) = कमनीय (मन्यो) = ज्ञानस्वरूप प्रभो! आप (निमिषत:) = आँखों को बन्द किये हुए-निमेषोन्मेष के व्यापारवाले जीवों से (ज्यायान्) = बड़े हो, (तिष्ठत:) = इन खड़े हुए वानस्पतिक जगत् से आप बड़े हो, (समुद्रात्) = इन समुद्रों से भी अथवा अन्तरिक्ष से भी आप (ज्यायान्) = बड़े हो। ३. (न वै) = निश्चय से न ही (वात: चन) = यह वायु भी (कामम् आप्नोति) = उस कमनीय प्रभु को व्याप्त कर पाता है, (न अग्निः) = न अग्नि उस प्रभु को महिमा को व्यापता है, (सूर्य:) = सूर्य भी नहीं व्यापता (उत) = और (न चन्द्रमा:) = न चन्द्रमा ही उस प्रभु की महिमा को व्याप सकता है। (तत:) = उन वायु, अग्नि, सूर्य व चन्द्रमा से हे (काम) = कमनीय प्रभो ! (त्वम्) = आप (ज्यायान्) = बड़े हो। (विश्वहा महान्) = सदा महनीय [पूजनीय] हो। (तस्मै ते) = उन आपके लिए (इत्) = निश्चय से (नमः कृणोमि) = नमस्कार करता हूँ।

    भावार्थ -

    प्रभु की महिमा को सारे 'भृग व कृमि-कीट-पतङ्ग' नहीं व्याप सकते। वे प्रभु चराचर जगत् व सम्पूर्ण अन्तरिक्ष से महान् हैं। वायु, अग्नि, वचन्द्र में ही प्रभु की महिमा समास नहीं हो जाती। प्रभु इन सबसे महान् हैं।

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