Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः
    0

    दे॒वं ब॒र्हिरिन्द्र॑ꣳ सुदे॒वं दे॒वैर्वी॒रव॑त् स्ती॒र्णं वेद्या॑मवर्द्धयत्।वस्तो॑र्वृ॒तं प्राक्तोर्भृ॒तꣳ रा॒या ब॒र्हिष्म॒तोऽत्य॑गाद् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। इन्द्र॑म्। सु॒दे॒वमिति॑ सुऽदे॒वम्। दे॒वैः। वी॒रव॒दिति॑ वी॒रऽव॑त्। स्ती॒र्णम्। वेद्या॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒त्। वस्तोः॑। वृ॒तम्। प्र। अ॒क्तोः। भृ॒तम्। रा॒या। ब॒र्हिष्म॑तः। अति॑। अ॒गा॒त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिरिन्द्रँ सुदेवन्देवैर्वीरवत्स्तीर्णँवेद्यामवर्धयत् । वस्तोर्वृतम्प्राक्तोर्भृतँ राया बर्हिष्मतो त्यगाद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। इन्द्रम्। सुदेवमिति सुऽदेवम्। देवैः। वीरवदिति वीरऽवत्। स्तीर्णम्। वेद्याम्। अवर्द्धयत्। वस्तोः। वृतम्। प्र। अक्तोः। भृतम्। राया। बर्हिष्मतः। अति। अगात्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    ( बर्हि: ) इस लोकवासिनी प्रजाएं और वैश्यगण स्वयं (वीरवत् ) वीर पुरुषों से युक्त और (वेद्याम् ) प्राप्त पृथिवी पर फैल कर ( देवम् ) दिव्य गुण वाले उत्तम दानशील, विजयी (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्, इन्द्र पद पर विराजमान, (सुदेवम् ) उत्तम विद्वान्, तेजस्वी दाता पुरुष को (देवैः) अन्य विद्वानों और विजयी पुरुषों द्वारा ( अवर्धयत् ) बढ़ावें । जिस प्रकार जंगल के कुशादि तृण दिन के समय ऊपर से काट लेने पर रात्रि के शीतल समय में बढ़ जाते हैं उसी प्रकार ( बस्तोः) दिन के प्रखर ताप के समान राजा के शत्रुओं के प्रति प्रचण्डता के युद्धादि के अवसरों पर (वृतम्) काट लिया जाकर भी (अक्तोः) रात्रि के समान शान्तिदायक राज्यव्यवस्था में (राया) धनैश्वर्य से ( प्रभृतम् ) खूब अच्छी प्रकार हृष्ट- पुष्ट होकर (बर्हिष्मतः) प्रजा के पालक अधिकारी राजाओं, भूपतियों से भी ( अति अगात् ) अधिक समृद्ध हो जाता है, ऐश्वर्य विभूति से उनको भी लांघ जाता है । तब (वसुवने) वह ऐश्वर्य वसु अर्थात् राष्ट्र के भोक्ता राजा के (वसुधेयाय) ऐश्वर्य रखने के स्थान कोष के लिये (वेतु) प्राप्त हो । प्रजा की समृद्धि से प्राप्त ऐश्वर्य राष्ट्रवासी जनों के हित के लिये राष्ट्रकोष में जमा हो । (यज) हे होतः ! तू ऐसी आज्ञा प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनावृषी । निचृदतिजगती । निषाद ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top