यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 16
ऋषिः - अश्विनावृषी
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिगाकृतिः
स्वरः - पञ्चमः
1
दे॒वीऽऊ॒र्जाहु॑ती॒ दुघे॑ सु॒दुघे॒ पय॒सेन्द्र॑मवर्द्धताम्। इष॒मूर्ज॑म॒न्या व॑क्ष॒त्सग्धि॒ꣳ सपी॑तिम॒न्या नवे॑न॒ पूर्वं॒ दय॑माने पुरा॒णेन॒ नव॒मधा॑ता॒मूर्ज॑मू॒र्जा॑हुतीऽ ऊ॒र्जय॑माने॒ वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वीऽइति॑ दे॒वी। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। दुघे॑। सु॒दुघे॒ इति॑ सु॒ऽदुघे॑। पय॑सा। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒ता॒म्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। सग्धि॑म्। सपी॑ति॒मिति॒ सऽपी॑तिम्। अ॒न्या। नवे॑न। पूर्व॑म्। दय॑माने॒ इति॒ दय॑माने। पु॒रा॒णेन॑। नव॑म्। अधा॑ताम्। ऊर्ज॑म्। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। ऊ॒र्जय॑मानेऽइत्यू॒र्जय॑माने। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒तेऽइति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवीऽऊर्जाहुती दुघे पयसेन्द्रमवर्धताम् । इषमूर्जमन्या वक्षत्सग्धिँ सपीतिमन्या नवेन पूर्वन्दयमाने पुराणेन नवमधातामूर्जाहुतीऽऊर्जयमाने वसु वृयाणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवीऽइति देवी। ऊर्जाहुती इत्यूर्जाऽआहुती। दुघे। सुदुघे इति सुऽदुघे। पयसा। इन्द्रम्। अवर्द्धताम्। इषम्। ऊर्जम्। अन्या। वक्षत्। सग्धिम्। सपीतिमिति सऽपीतिम्। अन्या। नवेन। पूर्वम्। दयमाने इति दयमाने। पुराणेन। नवम्। अधाताम्। ऊर्जम्। ऊर्जाहुती इत्यूर्जाऽआहुती। ऊर्जयमानेऽइत्यूर्जयमाने। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षितेऽइति शिक्षिते। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१६॥
विषय - होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।
भावार्थ -
( सुदुधे पयसा ) उत्तम रीति से दूध देनेवाली दो गौएं स्वामी या बछड़ों को पुष्ट करती हैं, उसी प्रकार दो संस्थाएं (देवी) उत्तम अन्न आदि देने में समर्थ, (दुघे) समस्त राष्ट्र को पूर्ण करने वाली, (ऊर्जाहुती) अन्न देने वाली, ( पयसा ) पुष्टिकारक अन्न से ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राष्ट्रपति और राष्ट्र की ( अवर्धताम् ) वृद्धि करें। उन दोनों में से (अन्या) एक संस्था ( ऊर्जम् ) राष्ट्र के अन्न को धारण करे । और (अन्या) दूसरी ( सग्धिम् सपीतिम् ) सबके एक समान जल आदि पान के योग्य पदार्थों को ( आवक्षत् ) प्राप्त करावे । वे दोनों (नवेत) नये अन्न से (पूर्वम् ) पूर्व विद्यमान अन्न की और (पुराणेन) पुराने गत वर्ष के अन्न से (नवम् ) नये ( ऊर्जम् ) अन्न को ( अधाताम् ) सुरक्षित रक्खें ! अर्थात् नया अन्न प्राप्त करके पुराने की भी इसलिये रक्षा करें कि पुराने अन्न को प्रयोग में लाकर उसको बीज रूप में क्षेत्रों में डलवा कर उससे नये अन्न को प्राप्त करें । इस प्रकार वे (ऊर्जम्) राष्ट्र को अन्न (दयमाने) प्रदान करती और रक्षा करती हुईं ही (ऊर्जाहुती) राष्ट्र को अन्न सम्पत् देने से 'ऊर्जाहुती' हैं। वे दोनों (ऊर्जयमाने ) अन्न द्वारा बल वृद्धि करती हुई (शिक्षिते) नाना विद्याओं में शिक्षा प्राप्त करके (वार्याणि वसु) प्राप्त करने योग्य नाना उत्तम ऐश्वर्यो को (वसुवने) ऐश्वर्य के भोक्ता (यजमानाय ) राजा के (वसुधेयस्य) धनैश्वर्य को (वीताम् ) प्राप्त करें और उसकी रक्षा करें। (होत: यज) हे होत: ! विद्वन् ! तू उन दोनों संस्थाओं को अधिकार प्रदान कर ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भुरिगाकृतिः । निषादः ॥
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