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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - अहोरात्रे देवते छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    दे॒वीऽ उ॒षासा॒नक्तेन्द्रं॑ य॒ज्ञे प्र॑य॒त्यह्वेताम्। दैवी॒र्विशः॒ प्राया॑सिष्टा॒ सुप्री॑ते॒ सुधि॑ते वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वी इति॑ दे॒वी। उ॒षासा॒नक्ता॑। उ॒षसा॒नक्तेन्यु॒षसा॒ऽनक्ता॑। इन्द्र॑म्। य॒ज्ञे। प्र॒य॒तीति॑। प्रऽय॒ति। अ॒ह्वे॒ता॒म्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒या॒सि॒ष्टा॒म्। सुप्री॑ते॒ इति॒ सुऽप्री॑ते। सुधि॑ते॒ इति॒ सुऽधि॑ते॒। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीऽउषासानक्तेन्द्रँयज्ञे प्रयत्यह्वेताम् । दैवीर्विशः प्रायासिष्टाँ सुप्रीते सुधिते वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवी इति देवी। उषासानक्ता। उषसानक्तेन्युषसाऽनक्ता। इन्द्रम्। यज्ञे। प्रयतीति। प्रऽयति। अह्वेताम्। दैवीः। विशः। प्र। अयासिष्टाम्। सुप्रीते इति सुऽप्रीते। सुधिते इति सुऽधिते। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 14
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    भावार्थ -
    (देवी) दिव्य गुणों वाली, व्यवहार और आनन्द विनोद करने वाली (उपासानक्ता) दिन रात्रिवत् प्रजाओं को उद्योग और विश्राम देने वाली, सेना और प्रजाएं ( इन्द्रम् ) इन्द्र, राजा को भी ( प्रयति यज्ञे ) उत्तम रीति से सञ्चालित राज्य कार्य में ( अह्वेताम् ) बुलावें । वे (देवी :) राजा की (विशः) प्रजाओं को ( प्र अयासिष्टाम् ) उत्तम रीति से प्राप्त करें । उनको उद्योगों में लगाती रहें, वे दोनों (सुप्रीते) उत्तम रीति से प्रसन्न होकर (सुधिते ) सुखपूर्वक हित करने वाली होकर (वसुवने ) धन के विभाग कार्य में (वसुधेयस्य) राज्यकोष को ( वीताम् ) उपभोग करें। (यज) हे होतः ! उनको आज्ञा प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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