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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 29
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - अहोरात्रे देवते छन्दः - निचृदतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    होता॑ यक्षत्सु॒पेश॑सा सुशि॒ल्पे बृ॑ह॒तीऽउ॒भे नक्तो॒षासा॒ न द॑र्श॒ते विश्व॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। त्रि॒ष्टुभं॒ छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं प॑ष्ठ॒वाहं॒ गां वयो॒ दध॑द् वी॒तामाज्य॑स्य होत॒र्यज॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। सु॒शि॒ल्पे इति॑ सुऽशि॒ल्पे। बृ॒ह॒तीऽइति॑ बृह॒ती। उ॒भेऽइत्यु॒भे। नक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। न। द॒र्श॒तेऽइति॑ दर्श॒ते। विश्व॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। त्रि॒ष्टुभ॑म्। त्रि॒स्तुभ॒मिति॑ त्रि॒ऽस्तुभ॑म्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। प॒ष्ठ॒वाह॒मिति॑ पष्ठ॒ऽवाह॑म्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वी॒ताम्। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्सुपेशसा सुशिल्पे बृहतीऽउभे नक्तोषासा न दर्शते विश्वमिन्द्रँवयोधसम् । त्रिष्टुभञ्छन्द इहेन्द्रियम्पष्ठवहङ्गाँवयो दधद्वीतामाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। सुपेशसेति सुऽपेशसा। सुशिल्पे इति सुऽशिल्पे। बृहतीऽइति बृहती। उभेऽइत्युभे। नक्तोषासा। नक्तोषसेति नक्तोषसा। न। दर्शतेऽइति दर्शते। विश्वम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। त्रिष्टुभम्। त्रिस्तुभमिति त्रिऽस्तुभम्। छन्दः। इह। इन्द्रियम्। पष्ठवाहमिति पष्ठऽवाहम्। गाम्। वयः। दधत्। वीताम्। आज्यस्य। होतः। यज॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 29
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    भावार्थ -
    (होता) अधिकार प्रदान करने वाला पुरुष (सुपेशसा) शुभ, उत्तम स्वरूप वाली, (सुशिल्पे ) उत्तम शिल्प वाली, (उभे) दोनों (नक्तो- षासा न) दिन और रात्रि के समान ( दर्शते ) दर्शनीय, पूर्वोक्त दोनों संस्थाओं को और ( विश्वम् ) समस्त ( वयोधसम ) बल और आयु वाले सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को ( यक्षत् ) अधिकार दे । (इह) इस कार्य में ( त्रिष्टुभं छन्दः इन्द्रियम् ) त्रिष्टुप् छन्द के ४४ अक्षरों के समान ४४ वर्षों के अध्यक्ष वीर्य पालन या ब्रह्मचर्य और ( पष्ट्वाहं गाम वयः) पीठ से बोझा उठाने वाले बैल के समान बल, उमर को ( दधत् ) धारण करावें । वे दोनों संस्थाएं और उनका पालक इन्द्र ( आज्यस्य बीताम् ) राष्ट्र के ऐश्वर्यं का पालन, वृद्धि और उपभोग करें। (होतः यज) हे विद्वन् ! तू अधिकार दे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदति शक्वरी । पंचमः ॥

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