यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 10
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - सिनीवाली देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑।जु॒षस्व॑ ह॑व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥१०॥
स्वर सहित पद पाठसिनी॑वालि। पृथु॑ष्टुके। पृथु॑स्तुक॒ इति॒ पृथु॑ऽस्तुके। या। दे॒वाना॑म्। असि॑। स्वसा॑ ॥ जु॒षस्व॑। ह॒व्यम्। आहु॑त॒मित्याऽहु॑तम्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दे॒वि॒। दि॒दि॒ड्ढि॒। नः॒ ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा । जुषस्व हव्यमाहुतम्प्रजान्देवि दिदिड्ढि नः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सिनीवालि। पृथुष्टके। पृथुस्तुक इति पृथुऽस्तुके। या। देवानाम्। असि। स्वसा॥ जुषस्व। हव्यम्। आहुतमित्याऽहुतम्। प्रजामिति प्रऽजाम्। देवि। दिदिड्ढि। नः॥१०॥
विषय - सिनीवाली का रहस्य ।
भावार्थ -
हे (सिनीबालि) समस्त प्रजाओं को पालन पोषण के सामर्थ्य से बांधने वाली, प्रतिपदा की चन्द्रकला और अमावास्या के समान नव राजचन्द्र से विराजने वाली राजसभे ! हे (पृथुष्टुके) बड़े भारी संघशक्ति से युक्त ! तू (या) जो (देवानाम् ) देवों, विद्वानों, विजयेच्छु और व्यवहार कुशल, पुरुषों को (स्वसा) उत्तम रीति से बैठाने वाली, विद्वान् सभासदों से बनी (असि) है। तू ( आहुतम् ) समस्त राष्ट्र से ग्रहण किये गये ( हव्यम् ) ग्रहण करने योग्य कर और सञ्चित बल को (जुषस्व ) स्वीकार कर और हे (देवि) दिव्य गुणों से युक्त राजसभे ! तू (नः प्रजां दिदिड्डि)हमारी प्रजा को उत्तम मार्ग दर्शा । उत्तम सुख प्रदान कर । (२) स्त्री के पक्ष में —हे (सिनीवालि ) गृह का पालन करने वाली ! प्रेम बन्धन में स्वयं बंधने और भरण पोषण करने योग्य ! हे (पृथुष्टुके) विशालबन्धन, विशाल कामना युक्त, विशाल केशपाश से युक्त ! बड़ी स्तुति योग्य,यशस्विनि ! हे (देवि ) कामना युक्त प्रियतमे (या) जो तू ( देवानाम् ) विद्वानों के बीच में (स्वसा) सुभूपित, सुन्दर रूपवती होकर ( असि ) विराजती है तू मेरे ( आहुतम् ) दिये हुए ( हव्यम् ) स्वीकार करने योग्य अन्न वस्त्रालंकारादि पदार्थ को (जुपस्व) प्रेम से स्वीकार कर और (नः) मैं (प्रजाम् ) उत्तम सन्तान (दिदिड्डि) प्रदान कर उसको उत्तम शिक्षा दे ।
'सिनीवाली' -दृष्टचन्द्राऽमावास्या सिनीवालीति सायणः । सिनमिति अन्ननामसु व्याख्यातम्, बालं पर्व इति देवराजः । सिनी प्रेमबद्धा चासौ - बलकारिणी चेति दया० । सिनमन्नं भवति । सिनाति भूतानि । वालं पर्व। पर्व वृणोतेः । तस्मिन्नवतीति वा । वालिनी वालेनैवास्यामणुत्व- वाच्चन्द्रमाः सेवितव्यो भवति इति वा । निरु० ११ । ३१ । १० ॥
'स्वसा' - - सु असा भवति । स्वेषु सीदति वा । निरु० ११।३१।११॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः । सिनीवाली देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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