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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 23
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वेन॑ नो॒ मन॑सा देव सोम रा॒यो भा॒गꣳ स॑हसावन्न॒भि यु॑ध्य।मा त्वा त॑न॒दीशि॑षे वी॒र्य्यस्यो॒भये॑भ्यः॒ प्र चि॑कित्सा॒ गवि॑ष्टौ॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेन॑। नः॒। मन॑सा। दे॒व॒। सो॒म॒। रा॒यः। भा॒गम्। स॒ह॒सा॒व॒न्निति॑ सहसाऽवन्। अ॒भि। यु॒ध्य॒ ॥ मा। त्वा॒। आ। त॒न॒त्। ईशि॑षे। वी॒र्य्य᳖स्य। उ॒भये॑भ्यः। प्र। चि॒कि॒त्स॒। गवि॑ष्टा॒विति॒ गोऽइ॑ष्टौ ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेन नो मनसा देव सोम रायो भागँ सहसावन्नभियुध्य । मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्र चिकित्सा गविष्टौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवेन। नः। मनसा। देव। सोम। रायः। भागम्। सहसावन्निति सहसाऽवन्। अभि। युध्य॥ मा। त्वा। आ। तनत्। ईशिषे। वीर्य्यस्य। उभयेभ्यः। प्र। चिकित्स। गविष्टाविति गोऽइष्टौ॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 23
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    भावार्थ -
    हे (सहसावन्) बलपूर्वक शत्रु पर विजय लाभ करने हारे ! हे (देव) राजन् ! प्रजाओं के सुखदाता एवं शत्रु पर विजय करने के इच्छुक ! तू (देवेन मनसा ) विजय की कामना वाले मन से (नः) हमारे ( राय: भागम् ) ऐश्वर्य को ले लेने वाले शत्रु को (अभियुध्य) युद्ध में परास्त कर । तू (उपयेभ्यः) शत्रु और मित्र दोनों पक्षों के लोगों के (वीर्यस्य) बलों पर (ईशिषे) स्वामित्व करने में समर्थ है। शत्रु (त्वा मा तनत् ) तुझे न व्याप ले, तुझे न दबा ले ! तू (गविष्टौ ) बाणों के निरन्तर प्रहारों के स्थान संग्राम में ( प्र चिकित्स) शत्रुओं को रोगों के समान दूर करने का यत्न कर, अथवा ( प्र चिकित्स) युद्ध से प्राप्त क्षत आदि की उत्तम चिकित्सा का प्रबन्ध कर । अथवा - (रायः भागं नः अभियुध्य) - ऐश्वर्य का भाग हमें प्राप्त करा । (गविष्टौ उभयेभ्यः प्र चिकित्स) सुख के निमित्त, हमारे ऐहिक, पारमार्थिक सुखों के बीच में आये विघ्न निवारण कर । ( मही०, दया०, उवट )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमः । सोमः। निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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