यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 35
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - भगो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रꣳ हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्त्ता।आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द् राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒त॒र्जित॒मिति॑ प्रातः॒ऽजित॑म्। भग॑म्। उ॒ग्रम्। हु॒वे॒म॒। व॒यम्। पु॒त्रम्। अदि॑तेः। यः। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता ॥ आ॒ध्रः। चि॒त्। यम्। मन्य॑मानः। तु॒रः। चि॒त्। राजा॑। चि॒त्। यम्। भग॑म्। भ॒क्षि॒। इति॑। आह॑ ॥३५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातर्जितम्भगमुग्रँ हुवेम वयम्पुत्रमदितेर्या विधर्ता । आध्रश्चिद्यम्मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यम्भगम्भक्षीत्याह ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रातर्जितमिति प्रातःऽजितम्। भगम्। उग्रम्। हुवेम। वयम्। पुत्रम्। अदितेः। यः। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता॥ आध्रः। चित्। यम्। मन्यमानः। तुरः। चित्। राजा। चित्। यम्। भगम्। भक्षि। इति। आह॥३५॥
विषय - प्रातः उपासना ।
भावार्थ -
परमेश्वर के पक्ष में - (यः) जो परमेश्वर (अदितेः) अखण्ड शक्ति और अखण्ड ब्रह्माण्ड का ( विधर्त्ता) विविध प्रकार से लोकों को धारण करने हारा है उस ( जितम् ) सबके विजेता और सबके उत्कृष्ट ( भगम् ) सबके भजन करने योग्य और ऐश्वर्यशील, ( उग्रम्) दुष्टों के अति सदा दण्ड देने वाले उग्र, अतिभयंकर परमेश्वर को ( वयम् ) हम ( प्रातः) प्रातःकाल ही (हुवेम ) स्मरण करें । (यम् ) जिस (भगम् ) भजन करने योग्य परमेश्वर की (आध्रः ) अधीर, अतृप्तं, भोगेच्छु या दरिद्र पुरुष ( चित् ) और ( तुरः चित् ) अति शीघ्रकारी, शत्रुभों का नाशक, बलवान् पुरुष और ( राजाचित् ) ऐश्वयों और उत्तम गुणों से प्रकाशमान् राजा भी ( मन्यमानः ) आदर सत्कार एवं प्रेम से मनन करता हुआ (भक्षि) मुझे ऐश्वर्य का प्रदान कर (इति) इसी प्रकार ( आह) प्रार्थना किया करता है । (२) राजा के पक्ष में- हम उस ऐश्वर्यवान् राजा को सबसे प्रथम प्रातः बुलावें (य: अदिते: विधत्तां) जो पृथ्वी का विविध उपायों से पोषण करता है (यं मन्यमानः) जिसका आदर पोषण करता हुआ (आध्रः) दरिद्र और ( तुरः चित् राजाचित् ) शत्रुहिंसक बलवान् पुरुष और राजा भी (इति आह ) ऐसा ही कहता है कि तू (भंग भक्षि ) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य का विभाग कर, धन सम्पदा बांट । 'आध्रः ' दरिद्रः इति सायणः । अपुत्रस्य पुत्रः [अथवा अतृप्तस्य पुत्रः इति वा स्यात्, न्यायादि में तृप्ति न करने वाले का पुत्र ] ? इति दया० । चै तृप्तौ । न तृप्यति स भधः । दीर्घश्छान्दसः । यहा आ समन्तात् धः अभ्र एव वा आघ्रः । स्वार्थे तद्धितः । इति महीधरः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः । भगः । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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