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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 29
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अप्न॑स्वतीमश्विना॒ वाच॑म॒स्मे कृ॒तं नो॑ दस्रा वृषणा मनी॒षाम्।अ॒द्यूत्येऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वां वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप्न॑स्वतीम्। अ॒श्वि॒ना॒। वाच॑म्। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। कृ॒तम्। नः॒। द॒स्रा॒। वृ॒ष॒णा॒। म॒नी॒षाम् ॥अ॒द्यू॒त्ये। अव॑से। नि। ह्व॒ये॒। वा॒म्। वृ॒धे। च॒। नः॒। भ॒व॒त॒म्। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतन्नो दस्रा वृषणा मनीषाम् । अद्यूत्ये वसे नि ह्वये वाँवृधे च नो भवतँवाजसातौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप्नस्वतीम्। अश्विना। वाचम्। अस्मेऽइत्यस्मे। कृतम्। नः। दस्रा। वृषणा। मनीषाम्॥अद्यूत्ये। अवसे। नि। ह्वये। वाम्। वृधे। च। नः। भवतम्। वाजसाताविति वाजऽसातौ॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 29
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    भावार्थ -
    हे (अश्विनौ) दिन और रात्रि, सूर्य और चन्द्र दोनों के समान तेज, प्रभाव तथा सर्व जनों को आह्लाद करने वाले सेनाध्यक्ष और सभाध्यक्ष आप दोनों ( अस्मे वाचम् ) हमारी वाणी को ( अप्नस्वतीम् ), उत्तम कर्म युक्त (कृतम्) करो । हे ( दस्रा) शत्रुओं और प्रजा के पीड़ाकारी दुःखों और दुष्ट पुरुषों के नाश करने वालो ! हे (वृषणा) प्रजा पर सुखों के वर्षण करने वालो ! तुम दोनों (अमस्वतीम् मनीषाम् कृतम् ) शुभ कर्म से युक्त मन की इच्छा बुद्धि को उत्पन्न करो। मैं प्रजाजन ( वाम् ) तुम दोनों को (अद्यत्ये) द्यूत आदि छल युक्त कार्यों या शर्तों रहित कार्य में अथवा (अद्यूत्ये) प्रकाश रहित, अन्धकार के समय अज्ञात स्थानों में और ( अवसे) प्रजा के रक्षण कार्य करने के लिये ( वाम् ) आप दोनों को ( निये) निरन्तर बुलाता हूँ । आप दोनों (वाजसातौ ) संग्राम में यह ऐश्वर्य प्राप्ति कार्य में (नः) हमारे (वृधे) बढ़ाने के लिये (भवतम् ) समर्थ होवो । 'भद्यूत्ये' – द्यूतादागतं, द्यूते भवं वा द्यूत्यम् । न द्यूत्यमद्यत्यं तस्मिन् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स ऋषिः । अश्विनौ देवते । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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