यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 11
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - सरस्वती देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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पञ्च॑ न॒द्यः सर॑स्वती॒मपि॑ यन्ति॒ सस्रो॑तसः।सर॑स्वती॒ तु प॑ञ्च॒धा सो दे॒शेऽभ॑वत् स॒रित्॥११॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑। न॒द्यः᳕। सर॑स्वतीम्। अपि॑। य॒न्ति॒। सस्रो॑तस॒ इति॒ सऽस्रो॑तसः ॥ सर॑स्वती। तु। प॒ञ्च॒धा। सा। उँ॒ इत्यूँ॑। दे॒शे। अ॒भ॒व॒त्। स॒रित् ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः । सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे भवत्सरित् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पञ्च। नद्यः। सरस्वतीम्। अपि। यन्ति। सस्रोतस इति सऽस्रोतसः॥ सरस्वती। तु। पञ्चधा। सा। उँ इत्यूँ। देशे। अभवत्। सरित्॥११॥
विषय - पञ्चनदी और सरस्वती का रहस्य ।
भावार्थ -
( सस्रोतसः) एक समान स्रोत वाली नदियां जैसे अधिक जल वाली, बड़ी नदी में मिलकर उसी में लीन हो जाती हैं उसी प्रकार (पञ्च) पांचों (नद्यः) समृद्ध प्रजाएं (सरस्वतीम् ) प्रशस्त वेद ज्ञान वाली विद्वत्सभा या विद्वान् को (सस्रोतसः) समान ज्ञानप्रवाह वाली होकर (अपियन्ति) आ मिलती हैं उसी में लीन हो जाती हैं । (सा उ) वह (सरस्वती) सरस्वती उत्तम वेद ज्ञान को धारण करने वाली विद्वत्सभा और विद्वान् (पञ्चधा) पांचों प्रकार के जनों को धारण करने वाला होकर (देशे) देश, राष्ट्र में ( सरित्) नदी के समान ज्ञान रूप जल को फैलाने वाला ( अभवत् ) हो जाता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद पांचों समृद्ध प्रजाएं हैं । वेदमयी वाणी पांचों को पालती पोषती है । वह नदी के समान सबके लिये समान रूप से उपयोगी, सुखजनक और पाप मलादि धोने वाली हो ।
वाणी के पक्ष में- (पञ्चनद्यः) नदियों के समान प्रवाहरूप से इन्द्रिय नालिकाओं से बहने वाली पांच प्रकार की वृत्तियां (सस्रोतसः) एक समान मनरूप स्रोत से ही बहती हैं । वे पांचों (सरस्वतीम् अपियन्ति) वाणी रूप में लीन होती हैं । अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान वाणी द्वारा प्रकट किया जाता है । (सा उ) वह वाणी (देशे ) स्व-स्थान, मुख में, ( सरित्) नदी के समान ही धारा रूप से निकलती ( अभवत् ) है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः । सरस्वती देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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