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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 33
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - उषर्देवता छन्दः - निचृत परोष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    उष॒स्तच्चि॒त्रमा भ॑रा॒स्मभ्यं॑ वाजिनीवति।येन॑ तो॒कं च॒ तन॑यं च॒ धाम॑हे॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उषः॑। तत्। चि॒त्रम्। आ। भ॒र॒। अ॒स्मभ्य॑म्। वा॒जि॒नी॒व॒तीति॑ वाजिनीऽवति ॥ येन॑। तो॒कम्। च॒। तन॑यम्। च॒। धाम॑हे ॥३३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषस्तच्चित्रमाभरास्मभ्यँवाजिनीवति । येन तोकञ्च तनयञ्च धामहे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उषः। तत्। चित्रम्। आ। भर। अस्मभ्यम्। वाजिनीवतीति वाजिनीऽवति॥ येन। तोकम्। च। तनयम्। च। धामहे॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 33
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    भावार्थ -
    हे (वाजिनीवति) वाजिनी अर्थात् अश्व रथ आदि सेना से युक्त ( उष: ) शत्रुओं को दान करने वाली, उनका नाश करने वाली, दण्डशक्ते ! तु ( अस्मभ्यम् ) हमारे हित के लिये ( तत् ) उस नाना प्रकार के ( चित्रम् ) अद्भुत धन को (आ भर) प्राप्त करा (येन) जिससे हम लोग (तोकं च) दुःखों के नाशक पुत्रों और ( तनयं च ) सन्तति के विस्तार करने वाले पौत्र आदि को भी ( धामहे ) धारण करें । स्त्री के पक्ष मैं- ( वाजिनीवति उषः ) बल, वीर्य, ज्ञान, बल और अन्नादि से समृद्ध उषा के समान शोभा से युक्त स्त्री संग्रह करने योग्य धन को प्राप्त करे,पुत्र पौत्रों का धारण पोषण करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोतमः ऋषिः । उषो देवता । निचृत् परोष्णिक् । ऋषभः ॥

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