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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 44
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वासः॒ समि॑न्धते।विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दम्॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। विप्रा॑सः। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒वास॒ इति॑ जागृ॒वासः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒ ॥ विष्णोः॑। यत्। प॒र॒मम्। प॒दम् ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवाँसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमम्पदम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। विप्रासः। विपन्यवः। जागृवास इति जागृवासः। सम्। इन्धते॥ विष्णोः। यत्। परमम्। पदम्॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 44
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    भावार्थ -
    (विप्रासः) विद्वान्, मेधावी ( विपन्यवः) विविध प्रकार से ईश्वर की स्तुति करने हारे (जागृवांसः) सदा जागृत अप्रमादी रह कर, ( विष्णोः ) व्यापक अन्तर्यामी परमेश्वर का ( यत् परमं पदम् ) जो सर्वोत्कृष्ट स्वरूप, परम पद, मोक्ष है । ( यत् ) उसको ही ( सम् इन्धते) भली प्रकार प्रकाशित करते, उसी की साधना करते हैं । राजा के पक्ष में - सावधान विद्वान् पुरुष, महान् शक्तिशाली राजा के ही सर्वोत्कृष्ट पद को प्रकाशित करें, उसको उत्तम विचारों से उत्कृष्ट बनावें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः । विष्णुः । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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