अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 131/ मन्त्र 6
सूक्त -
देवता - प्रजापतिर्वरुणो वा
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अहु॑ल कुश वर्त्तक ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑ल । कुश । वर्त्तक ॥१३१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अहुल कुश वर्त्तक ॥
स्वर रहित पद पाठअहल । कुश । वर्त्तक ॥१३१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 131; मन्त्र » 6
विषय - missing
भावार्थ -
(अहल) हे ‘अहल’ अविलेखनयोग्य ! तुझ को कोई उखाड़ नहीं सकता। तू (कुशवर्त्तक) कुश घास के समान रहता है। जैसे कुश घास जहां हल नहीं चलता वहां जम आता है। और हल चल जाने पर फिर भी बार बार आता है इसी प्रकार राज भी जड़ से नहीं उखड़ता। वह बार बार सिर उठाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
इस भाष्य को एडिट करें