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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
    सूक्त - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - जगती सूक्तम् - काम सूक्त

    च्यु॒ता चे॒यं बृ॑ह॒त्यच्यु॑ता च वि॒द्युद्बि॑भर्ति स्तनयि॒त्नूंश्च॒ सर्वा॑न्। उ॒द्यन्ना॑दि॒त्यो द्रवि॑णेन॒ तेज॑सा नी॒चैः स॒पत्ना॑न्नुदतां मे॒ सह॑स्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च्यु॒ता । च॒ । इ॒यम् । बृ॒ह॒ती ।अच्यु॑ता । च॒ । वि॒ऽद्युत् । बि॒भ॒र्ति॒ । स्त॒न॒यि॒त्नून् । च॒ । सर्वा॑न् । उ॒त्ऽयन् । आ॒दि॒त्य: । द्रवि॑णेन । तेज॑सा । नी॒चै: । स॒ऽपत्ना॑न् । नु॒द॒ता॒म् । मे॒ । सह॑स्वान् ॥२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    च्युता चेयं बृहत्यच्युता च विद्युद्बिभर्ति स्तनयित्नूंश्च सर्वान्। उद्यन्नादित्यो द्रविणेन तेजसा नीचैः सपत्नान्नुदतां मे सहस्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    च्युता । च । इयम् । बृहती ।अच्युता । च । विऽद्युत् । बिभर्ति । स्तनयित्नून् । च । सर्वान् । उत्ऽयन् । आदित्य: । द्रविणेन । तेजसा । नीचै: । सऽपत्नान् । नुदताम् । मे । सहस्वान् ॥२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 15

    भावार्थ -
    (च्युता च) अपने स्थान से च्युत हुई, चल चुकी हुई, और (अच्युता च) या अपने स्थान से न चली हुई, स्थिर, दोनों प्रकार की (विद्युत्) विद्युत् (बृहती) बड़ी भारी शक्ति है। वही (सर्वान्) सब (स्तनयित्नून् च) गर्जना करने वाले मेघों को (बिभर्त्ति) धारण पोषण करती है अर्थात् इसी प्रकार मेरी शक्तियां भी उत्तम भावों का धारण पोषण करने वाली हों। और साथ ही (उद्यन्) उदय को प्राप्त होता हुआ (आदित्यः) सूर्य जिस प्रकार (तेजसा) अपने तेज रूपी (द्रविणेन) सामर्थ्य द्वारा तिमिर का नाश करता है उसी प्रकार मेरे हृदयाकाश से उदय को प्राप्त होता हुआ मेरा सत्संकल्प (सहस्वान्) जो कि अन्तःशत्रुओं के पराजय करने में समर्थ है (सपत्नान्) मेरे अन्तःशत्रुओं को (नीचैः) नीचे (नुदतां) करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः॥ कामो देवता॥ १, ४, ६, ९, १०, १३, १९, २४ अनुष्टुभः। ५ अति जगती। ८ आर्चीपंक्तिः। ११, २०, २३ भुरिजः। १२ अनुष्टुप्। ७, १४, १५ १७, १८, २१, २२ अतिजगत्यः। १६ चतुष्पदा शक्वरीगर्भा पराजगती। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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