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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - स्वराडतिजगती स्वरः - निषादः
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    होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑ꣳशमि॒तार॑ꣳ श॒तक्र॑तुं धि॒यो जो॒ष्टार॑मिन्द्रि॒यम्।मध्वा॑ सम॒ञ्जन् प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॒ स्वदा॑ति य॒ज्ञं मधु॑ना घृ॒तेन॒ वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। श॒मि॒तार॑म्। श॒तक्र॑तु॒मिति॑ श॒तऽक्र॑तुम्। धि॒यः। जो॒ष्टार॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। मध्वा॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभि॒रिति॑ सु॒ऽगेभिः॑। स्वदा॑ति। य॒ज्ञम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षद्वनस्पतिँ शमितारँ शतक्रतुन्धियो जोष्टारमिन्द्रियम् । मध्वा समञ्जन्पथिभिः सुगेभिः स्वदाति यज्ञम्मधुना घृतेन वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। वनस्पतिम्। शमितारम्। शतक्रतुमिति शतऽक्रतुम्। धियः। जोष्टारम्। इन्द्रियम्। मध्वा। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। पथिभिरिति पथिऽभिः। सुगेभिरिति सुऽगेभिः। स्वदाति। यज्ञम्। मधुना। घृतेन। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 10
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (होतः) दाता महोदय, (होता) यज्ञकर्त्ता मनुष्य (वनस्पतिम्) किरणांचा स्वामी म्हणजे सूर्य, त्या सूर्याप्रमाणे (शमिताम्) यजमान (शतक्रतम्) अनेक प्रकारच्या बुद्धी वा विचार-धन असणार्‍या (धियः) बुद्धी आणि कमाचे (जोष्टारम्) प्रसन्नतेने सेवन करणार्‍या मनुष्याशी (यक्ष्त्) संगती राहतो. तसेच तो मनुष्य (मध्वा) मधुर विज्ञानाने (सुगेभिः) सुगम रीतीच्या (पथिभिः) मार्गांनी (आज्यस्य) प्राप्तव्य संसाराच्या (इन्द्रियम्) धनाला (समञ्जन्) प्राप्त करतो त्या उपभोग्य भौतिक पदार्थांचा (स्वदाति) स्वाद घेतो आणि (मधुना) मधुर (घृतेन) तुपाने वा पाण्याने (यज्ञम्) संगतीकरण व्यवहार पूर्ण करीत (वेतु) इथे प्राप्त होतो (तो भनुष्य धन अर्जित करतो, पण सत्य मार्गाने यज्ञ म्हणजे समाजात ऐक्य स्थापित करतो आणि बुद्धियुक्त कर्म करतो) तसे हे यजमान, तूही (यज) यज्ञ वा सत्कर्म कर ॥10॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक विद्या, बुद्धी, धर्म आणि ऐश्‍वर्य प्राप्त करून देणारे धर्ममय उपायांनी व्यवहार करतात, ते स्वतः सुखी होऊन इतरांनाही सुखी करणारे ठरतात. ॥10॥

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