ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 12
विश्वा॑न्दे॒वाँ आ व॑ह॒ सोम॑पीतये॒ऽन्तरि॑क्षादुष॒स्त्वम् । सास्मासु॑ धा॒ गोम॒दश्वा॑वदु॒क्थ्य १॒॑ मुषो॒ वाजं॑ सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑न् । दे॒वान् । आ । व॒ह॒ । सोम॑ऽपीतये । अ॒न्तरि॑क्षात् । उ॒षः॒ । त्वम् । सा । अ॒स्मासु॑ । घाः॒ । गोऽम॑त् । अश्व॑ऽवत् । उ॒क्थ्य॑म् । उषः॑ । वाज॑म् । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् । सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्य १ मुषो वाजं सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वान् । देवान् । आ । वह । सोमपीतये । अन्तरिक्षात् । उषः । त्वम् । सा । अस्मासु । घाः । गोमत् । अश्ववत् । उक्थ्यम् । उषः । वाजम् । सुवीर्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(विश्वान्) अखिलान् (देवान्) दिव्यगुणयुक्तान् पदार्थान् (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सोमपीतये) सोमानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (अन्तरिक्षात्) उपरिष्टात् (उषः) उषर्वदनुत्तमगुणे (त्वम्) (सा) (अस्मासु) मनुष्येषु (धाः) धेहि। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (गोमत्) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि किरणाः पृथिव्यादयी वा विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (अश्वावत्) बहवः प्रशस्ता वेगप्रदा अश्वा अग्न्यादयः सन्ति यस्मिँस्तत्। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रिय०। अ० ६।३।१३१। इति दीर्घः। (उक्थ्यम्) उच्यते प्रशस्यते यत्तस्मै हितम् (उषः) उषर्वद्धितसंपादिके (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा (सुवीर्य्यम्) शोभनानि वीर्य्याणि पराक्रमा यस्मात्तत् ॥१२॥
अन्वयः
पुनः सा किं कुर्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! अहं सोमपीतयेऽन्तरिक्षाद्यान् विश्वान्देवान् यां त्वाञ्च प्राप्नोमि सा त्वमेतानावह। हे उषर्वत्सर्वेष्टप्रापिके ! त्वमस्मासूक्थ्यं गोमदश्ववत्सुवीर्यं वाजं धा धेहि ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथेयमुषाः स्वप्रादुर्भावेन शुद्धजलवायुप्रकाशादीन् प्रापय्य दोषान्नाशयित्वा सर्वमुत्तमपदार्थसमूहं प्रकटयन्ति तथोत्तमा स्त्री गृहकृत्येषु भवेत् ॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (उषः) प्रभात के तुल्य स्त्रि ! मैं (सोमपीतये) सोम आदि पदार्थों को पीने के लिये (अन्तरिक्षात्) ऊपर से (विश्वान्) अखिल (देवान्) दिव्य गुण युक्त पदार्थों और जिस तुझ को प्राप्त होता हूं उन्हीं को तू भी (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त हो हे (उषः) उषा के समान हित करने और (सा) तू सब इष्ट पदार्थों को प्राप्त करानेवाली (अस्मासु) हम लोगों इन्द्रिय किरण और पृथिवी आदि से (अश्वावत्) और अत्युत्तम तुरंगों से युक्त (सुवीर्य्यम्) उत्तम वीर्य्य पराक्रम कारक (वाजम्) विज्ञान वा अन्न को (धाः) धारण कर ॥१२॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे यह उषा अपने प्रादुर्भाव में शुद्ध वायु जल आदि दिव्य गुणों को प्राप्त कराके दोषों का नाश कर सब उत्तम पदार्थ समूह को प्रकट करती है वैसे उत्तम स्त्री गृह कार्य्य में हो ॥१२॥
विषय
दिव्य गुण व सौम्य भोजन
पदार्थ
१. हे (उषः) = उषः काल ! (त्वम्) = तू (सोमपीतये) = शरीर में ही सोम के रक्षण के लिए (अन्तरिक्षात्) = [अन्तरा क्षि] सदा मध्य - मार्ग में चलने के द्वारा (विश्वान् देवान् आवह) = सब दिव्य गुणों को प्राप्त करा । मध्य - मार्ग में चलना कारण है और दिव्य गुणों का विकास उसका कार्य । दिव्य गुणों का विकास कारण है और वासना - विनाश उसका कार्य । वासना - विनाश कारण है और सोमरक्षण उसका कार्य । २. इस सोमरक्षण के लिए ही हे (उषः) = उषा ! तू (अस्मासु) = हममें (वाजम्) = उस अन्न को (धा) = धारण कर जो [क] (गोमत्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला है, [ख] (अश्वावत्) = कर्मेन्द्रियों को उत्तम बनानेवाला है, [ग] (उक्थ्यम्) = स्तोत्रों में उत्तम है, अर्थात् हमारी चित्तवृत्ति को प्रभुस्तवनपरायण बनानेवाला है तथा [घ] (सुवीर्यम्) = उत्तम वीर्यवाला है । वस्तुतः सौम्य भोजनों से शीतवीर्य की उत्पत्ति होती है और उसका शरीर में रक्षण सुगम होता है, अतः ये भोजन 'सुवीर्य' कहलाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम मध्यमार्ग में चलते हुए अपने अन्दर दिव्यगुणों का विकास करें और सात्त्विक भोजन करते हुए सोम का रक्षण करें ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (उषः) उषा के समान उज्वल कान्तिमति! कमनीये कन्ये! (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष, आकाश से जिस प्रकार प्रभात वेला, (सोमपीतये) उत्तम वायु, जल और ओषधि रसों के पान करने के लिये (विश्वान् देवान् आवहति) समस्त सूर्य की किरणों और दिव्य गुणों को प्राप्त कराती है उसी प्रकार गृहस्थ में (सोमपीतये) जल, अन्न आदि उत्तम पदार्थ और गार्हस्थ्य सुखों के उपभोग के लिये (अन्तरिक्षात्) भीतर के अन्तःकरण से तू (विश्वान् देवान्) समस्त उत्तम गुणों को (आ वह) धारण कर। हे (उषः) कमनीये! पति की इच्छा करने हारी! तू (सा) वह (अस्मासु) हम में भी (गोमत्) पशु आदि सम्पत्ति, सुन्दर वाणी तथा भूमि और इन्द्रियों के बल से युक्त (अश्वावत्) वेग वाले अग्नि आदि यानों और अश्व आदि पशुओं से सम्पन्न (उक्थम्) प्रशंसा योग्य (सुवीर्यम्) उत्तम वीर्य और बल के देने वाले (वाजम्) ऐश्वर्य और अन्न सम्पदा (धाः) धारण कर, प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह उषा क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे उषः वत् वर्त्तमाने स्त्रि ! अहं सोमपीतये अन्तरिक्षात् यान् विश्वान् देवान् यां त्वाम् च प्राप्नोमि सा त्वम् एतान् आ वह। हे उषः वत् सर्व इष्ट प्रापिके ! त्वम् अस्मासु उक्थ्यं गोमत् अश्ववत् सुवीर्यं वाजं धा धेहि ॥१२॥
पदार्थ
हे (उषः) उषर्वदनुत्तमगुणे=उषा के समान उत्तम गुणों में (वर्त्तमाने)= वर्त्तमान, (स्त्रि)=स्त्री ! (अहम्)=मैं, (सोमपीतये) सोमानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै=सोम को पीने के व्यवहार में, (अन्तरिक्षात्) उपरिष्टात्=ऊपर, (यान्)=जो, (विश्वान्) अखिलान्=समस्त, (देवान्) दिव्यगुणयुक्तान् पदार्थान्=दिव्य गुण युक्त पदार्थों के द्वारा, (याम्)=जिनको, (त्वाम्)=तुम, (च)=भी, (प्राप्नोमि)=प्राप्त करते हो, (सा)=वह, (त्वम्)=तुम, (एतान्)=इन्हें, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वह) प्राप्नुहि=प्राप्त करो। हे (उषः) उषर्वद्धितसंपादिके=उषा के समान प्रसन्न, (सर्व)=सब, (इष्ट)=इच्छित, (प्रापिके)= करानेवाली! (त्वम्)=तुम, (अस्मासु) मनुष्येषु=हम मनुष्यों में, (उक्थ्यम्) उच्यते प्रशस्यते यत्तस्मै हितम्=जो कहा जाता है, ऐसा प्रसंसनीय हित, (गोमत्) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि किरणाः पृथिव्यादयी वा विद्यन्ते यस्मिँस्तत् =जिसमें प्रसंसनीय, गायें, इन्द्रियां, किरणें और पृथिवी आदि विद्यमान हैं, ऐसे, (अश्वावत्) बहवः प्रशस्ता वेगप्रदा अश्वा अग्न्यादयः सन्ति यस्मिँस्तत्=बहुत से प्रसंसनीय, वेग प्रदान करनेवाले अश्व और अग्नि आदि हैं, (सुवीर्य्यम्) शोभनानि वीर्य्याणि पराक्रमा यस्मात्तत्=उत्तम पराक्रमोंवाले, (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा=और वेशेष ज्ञान और अन्न सम्पदा, (धाः) धेहि=प्रदान करो ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे यह उषा अपने प्रादुर्भाव से शुद्ध वायु, जल और प्रकाश आदि को प्राप्त कराके दोषों का नाश करके सब उत्तम पदार्थ के समूह को प्रकट करती हैं, वैसे ही उत्तम स्त्री गृह कार्यों में होवे ॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (उषः) उषा के समान उत्तम गुणों में (वर्त्तमाने) वर्त्तमान (स्त्रि) स्त्री ! (अहम्) मैं (सोमपीतये) सोम को पीने के व्यवहार में (अन्तरिक्षात्) ऊपर (यान्) जो (विश्वान्) समस्त (देवान्) दिव्य गुण युक्त पदार्थों के द्वारा, (याम्) जिनको (त्वाम्)तुम (च) भी (प्राप्नोमि) प्राप्त करते हो। (सा) वह (त्वम्) तुम (एतान्) इन्हें (आ) हर ओर से (वह) प्राप्त करो। हे (उषः) उषा के समान प्रसन्न, (सर्व) सब (इष्ट) इच्छितों को (प्रापिके) प्राप्त करानेवाली! (त्वम्) तुम (अस्मासु) हम मनुष्यों में (उक्थ्यम्) जो प्रसंसनीय हित कहा जाता है और (गोमत्) जिसमें प्रसंसनीय, गायें, इन्द्रियां, किरणें और पृथिवी आदि विद्यमान हैं, ऐसे (अश्वावत्) बहुत से प्रसंसनीय, वेग प्रदान करनेवाले अश्व और अग्नि आदि हैं जिनमे, ऐसे (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम (वाजम्) और विशेष ज्ञान और अन्न सम्पदा [हमें] (धाः) प्रदान करो ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वान्) अखिलान् (देवान्) दिव्यगुणयुक्तान् पदार्थान् (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सोमपीतये) सोमानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (अन्तरिक्षात्) उपरिष्टात् (उषः) उषर्वदनुत्तमगुणे (त्वम्) (सा) (अस्मासु) मनुष्येषु (धाः) धेहि। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (गोमत्) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि किरणाः पृथिव्यादयी वा विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (अश्वावत्) बहवः प्रशस्ता वेगप्रदा अश्वा अग्न्यादयः सन्ति यस्मिँस्तत्। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रिय०। अ० ६।३।१३१। इति दीर्घः। (उक्थ्यम्) उच्यते प्रशस्यते यत्तस्मै हितम् (उषः) उषर्वद्धितसंपादिके (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा (सुवीर्य्यम्) शोभनानि वीर्य्याणि पराक्रमा यस्मात्तत् ॥१२॥ विषयः- पुनः सा किं कुर्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे उषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! अहं सोमपीतयेऽन्तरिक्षाद्यान् विश्वान्देवान् यां त्वाञ्च प्राप्नोमि सा त्वमेतानावह। हे उषर्वत्सर्वेष्टप्रापिके ! त्वमस्मासूक्थ्यं गोमदश्ववत्सुवीर्यं वाजं धा धेहि ॥१२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथेयमुषाः स्वप्रादुर्भावेन शुद्धजलवायुप्रकाशादीन् प्रापय्य दोषान्नाशयित्वा सर्वमुत्तमपदार्थसमूहं प्रकटयन्ति तथोत्तमा स्त्री गृहकृत्येषु भवेत् ॥१२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी ही उषा आपल्या प्रादुर्भावाने शुद्ध वायू, जल इत्यादी दिव्य गुणांना प्राप्त करवून सर्व उत्तम पदार्थ समूह प्रकट करते तशी उत्तम स्त्री गृहकार्यदक्ष असावी. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Light of Divinity, you bring us from the skies all the divine powers and energies of the world to partake of the soma of our yajna and vest in us the best of food, energy and virility of the early morning which may give us admirable wealth of sense and mind, speed and agility, and plenty of cows and horses.
Subject of the mantra
Then what should that dawn do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (uṣaḥ)=in good qualities like dawn, (varttamāne) =present, (stri) =woman, (aham) =I, (somapītaye)=in the practice of drinking soma, (antarikṣāt) =above, (yān) =which, (viśvān) =all, (devān) =by substances with divine qualities, (yām) =to whom, (tvām) =you, (ca) =also, (prāpnomi) =obtain, (sā) =that, (tvam) =you, (etān) =to these, (ā) from all sides, (vaha) =obtain, He=O! (uṣaḥ) =happy like a dawn, (sarva)=all, (iṣṭa) =to desired, (prāpike) =one who obtain, (tvam) =you, (asmāsu) =in us humans, (ukthyam)=what is called appreciable interest and, (gomat) In whom the praiseworthy, cows, senses, rays and earth etc. are present, such (aśvāvat) There are many admirable, speedy horses and fire etc., in which such, (suvīryyam) =best valour, (vājam) =and special knowledge and food wealth [hameṃ]=to us, (dhāḥ)=provide.
English Translation (K.K.V.)
O woman present in good qualities like dawn! In the practice of drinking Soma, above all the substances with divine qualities, which you get as well. You get them from all sides. O one who is as happy as dawn, the one who achieves all desires! You are called praiseworthy interest in us humans and in which praiseworthy cows, senses, rays and earth etc. exist. There are many praiseworthy, speed-giving horses and fire etc. Give us such excellent might and special knowledge, food and wealth.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as figurative in this mantra. Just as this dawn, by its very nature, provides pure air, water, light, etc., destroys all the defects and manifests all the good things, in the same way, a good woman should be involved in household chores.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should she (Usha) do is further taught in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble woman charming like the Dawn, as I get from the firmament all divine objects, pure air etc. for drinking the essence of herbs, you should also get them and bear all divine virtues in your heart. O lady, fulfiller of all desires benevolent like the Dawn, bestow upon us excellent and invigorating food and knowledge, along with noble speech and strength, the cattle and the horses and fire etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As this Dawn by her appearance causes us to attain pure water, air and light etc., removing all evils and revealing all noble objects, a noble lady should be of the same nature in the discharge of her domestic duties.
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