ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
यस्या॒ रुश॑न्तो अ॒र्चयः॒ प्रति॑ भ॒द्रा अदृ॑क्षत । सा नो॑ र॒यिं वि॒श्ववा॑रं सु॒पेश॑समु॒षा द॑दातु॒ सुग्म्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्याः॑ । रुश॑न्तः । अ॒र्चयः॑ । प्रति॑ । भ॒द्राः । अदृ॑क्षत । सा । नः॒ । र॒यिम् । वि॒श्वऽवा॑रम् । सु॒ऽपेश॑सम् । उ॒षाः । द॒दा॒तु॒ । सुग्म्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत । सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याः । रुशन्तः । अर्चयः । प्रति । भद्राः । अदृक्षत । सा । नः । रयिम् । विश्ववारम् । सुपेशसम् । उषाः । ददातु । सुग्म्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यस्याः) प्रकाशिकायाः (रुशन्तः) चोरदस्य्वन्धकारादीन् हिंसन्तः (अर्चयः) प्रकाशाः (प्रति) प्रत्यक्षार्थे (भद्राः) कल्याणकारकाः (अदृक्षत) दृश्यन्ते (सा) (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियम् (विश्ववारम्) येन विश्वं सर्वं वृणोति तत् (सुपेशसम्) शोभनं पेशो रूपं यस्मात्तत् (उषाः) उषर्वत्सुरूपप्रदा (ददातु) (सुग्म्यम्) सुखेषु भवमानन्दम्। सुग्ममितिसुखना०। निघं० ३।६। ॥१३॥
अन्वयः
पुनः सा कीदृशी भूत्वा किं दद्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे स्त्रि ! यस्यारुशन्तो भद्रा अर्चयः प्रत्यदृक्षतः सोषानो विश्ववारं सुपेशसं रयिं सुग्म्यं सुखं च यथा ददाति तथासती ह्येतत्सर्वं भवती ददातु ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा दिननिमित्तयोषसा विना ! सुखेन कार्य्याणि न सिद्धन्ति स्वरूपप्राप्तिश्च तथा सत्स्त्रिया विनैतखिलं न जायते ॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसी होकर क्या देवे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे स्त्रि ! (यस्याः) जिसके सकाश से ये (रुशन्तः) चोर डांकू अन्धकार आदि का नाश और (भद्राः) कल्याण करनेवाली (अर्चयः) दीप्ति (प्रत्यदृक्षत) प्रत्यक्ष होती है (सा) जैसे वह (उषा) सुरूप के देनेवाली प्रभात की वेला (नः) हम लोगों के लिये (विश्ववारम्) सब आच्छादन करने योग्य (सुपेशसम्) शोभनरूप युक्त (रयिम्) चक्रवर्त्ति राज्य लक्ष्मी (सुग्म्यम्) सुख को (ददाति) देती है वैसी होकर तू भी हमको सुखदायक हो ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे दिन की निमित्त उषा के विना सुख वा राज्य के कार्य्य सिद्ध नहीं होते और सुरूप की प्राप्ति भी नहीं होती वैसे ही समीचीन स्त्री के विना यह सब नहीं होता ॥१३॥
विषय
"विश्ववार - सुपेशस् - सुग्म्य" रयि
पदार्थ
१. (यस्याः) = जिस उषः काल की (अर्चयः) = दीप्तियाँ (रुशन्तः) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाली पवित्र भावनाओं को जगानेवाली तथा (भद्राः) = कल्याण व सुख को प्राप्त करानेवाली (प्रति - अदृक्षत) = प्रतिदिन दिखती हैं, (सा) = वह उषा (नः) = हमें (रयिं ददातु) = उस ऐश्वर्य को दे जो ऐश्वर्य [क] (विश्ववारम्) = सबसे वरणीय - चाहने योग्य है अथवा सब कष्टों का निवारण करनेवाला है, [ख] (सुपेशसम्) = सुन्दर आकृतिवाला है, शोभन रूपोपेत है, हमें बेडौल [कु - वेर] शरीरवाला नहीं बना डालता तथा २. (सुग्म्यम्) = जो उत्तम साधनों से प्राप्त करने योग्य है [सु+गमः] अथवा सुख का साधनभूत है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा हमारे जीवनों को प्रकाशमय करती है और हम वरणीय धनों को सुपथ से सिद्ध करते हुए सुखी होते हैं ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(यस्याः) जिस की प्रातः कालीन उषा के समान (रुशन्तः) दीप्तियुक्त, एवं चोर, दस्यु और अन्धकार को नाश करने वाली, (अर्चयः) किरणों के समान (रुशन्तः अर्चयः) पापों को नाश करने वाले, उज्वल (भद्राः) अति कल्याणकारी, सुखजनक गुण, (प्रति अदृक्षन्त) प्रत्यक्ष रूप से दीखते हों, (सा) वह (उषा) पाप को नाश करने वाली, कान्तिमती कन्या (सुपेशसम्) उत्तम सुवर्णादि से युक्त सुन्दर रूप वाले, (विश्ववारम्) सब के मन को हरने वाले, (सुग्म्यम्) सुखजनक, (रयिम्) ऐश्वर्य सौभाग्य का (नः ददातु ) हमें प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह उषा कैसी होकर क्या देवे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्त्रि ! यस्याः रुशन्तः भद्रा अर्चयः प्रति अदृक्षत सा उषा नः विश्ववारं सुपेशसं रयिं सुग्म्यं सुखं च यथा ददाति तथा सती हि एतत् सर्वं भवती ददातु ॥१३॥
पदार्थ
हे (स्त्रि)=स्त्री ! (यस्या) प्रकाशिकायाः=जिस प्रकाशित करनेवाली के, (रुशन्तः) चोरदस्य्वन्धकारादीन् हिंसन्तः=चोर, दस्यु, अन्धकार और हिंसक, (भद्राः) कल्याणकारकाः= कल्याण करनेवाला, (अर्चयः) प्रकाशाः= प्रकाश, (प्रति) प्रत्यक्षार्थे=सामने, (अदृक्षत) दृश्यन्ते=दिखाई देते हैं, (सा)=वह, (उषाः) उषर्वत्सुरूपप्रदा =उषा के समान सुरूप प्रदान करनेवाली, (नः) अस्मभ्यम्=हमें, (विश्ववारम्) येन विश्वं सर्वं वृणोति तत्=जिस से सब आच्छदित है, (सुपेशसम्) शोभनं पेशो रूपं यस्मात्तत्=शोभनीय रूपवाली, (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियम्= चक्रवर्त्ति राज्य और लक्ष्मीवाली, (सुग्म्यम्) सुखेषु भवमानन्दम्=सुख देनेवाली, (च)=और, (सुखम्)= सुख को, (यथा)=जैसे, (ददाति)=देती है, (तथा)=वैसे, (सती)=होती हुई, (हि)=ही, (एतत्)=यह, (सर्वम्)=सब, (भवती)=आप [उषा], (ददातु)=देओ ॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे दिन की निमित्त उषा के विना सुख वा राज्य के कार्य्य सिद्ध नहीं होते हैं। सुरूप की प्राप्ति और सत् स्त्रियों के विना भी नहीं होती, वैसे ही सती स्त्री के विना यह सब नहीं होता ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्त्रि) स्त्री ! (यस्या) जिस प्रकाशित करनेवाली का (रुशन्तः) चोर, दस्यु, अन्धकार और हिंसक से (भद्राः) कल्याण करनेवाला (अर्चयः) प्रकाश (प्रति) सामने (अदृक्षत) दिखाई देता है। (सा) वह (उषाः) उषा के समान सुरूप प्रदान करनेवाली, (नः) हमें (विश्ववारम्) सबको आच्छदित करनेवाली, (सुपेशसम्) शोभनीय रूपवाली, (रयिम्) चक्रवर्त्ति राज्य और लक्ष्मीवाली [और] (सुग्म्यम्) सुख देनेवाली है। (सुखम्) सुख को (च) भी (यथा) जैसे (ददाति) देती है, (तथा) वैसी (सती) होती हुई (हि) ही (एतत्) यह (सर्वम्) सब (भवती) आप [उषा हमें] (ददातु) देओ ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यस्याः) प्रकाशिकायाः (रुशन्तः) चोरदस्य्वन्धकारादीन् हिंसन्तः (अर्चयः) प्रकाशाः (प्रति) प्रत्यक्षार्थे (भद्राः) कल्याणकारकाः (अदृक्षत) दृश्यन्ते (सा) (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियम् (विश्ववारम्) येन विश्वं सर्वं वृणोति तत् (सुपेशसम्) शोभनं पेशो रूपं यस्मात्तत् (उषाः) उषर्वत्सुरूपप्रदा (ददातु) (सुग्म्यम्) सुखेषु भवमानन्दम्। सुग्ममितिसुखना०। निघं० ३।६। ॥१३॥ विषयः- पुनः सा कीदृशी भूत्वा किं दद्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे स्त्रि ! यस्यारुशन्तो भद्रा अर्चयः प्रत्यदृक्षतः सोषानो विश्ववारं सुपेशसं रयिं सुग्म्यं सुखं च यथा ददाति तथासती ह्येतत्सर्वं भवती ददातु ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा दिननिमित्तयोषसा विना ! सुखेन कार्य्याणि न सिद्धन्ति स्वरूपप्राप्तिश्च तथा सत्स्त्रिया विनैतखिलं न जायते ॥१३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे उषेशिवाय दिवसा सुख मिळत नाही, कार्य सिद्ध होत नाही व स्वरूपाची प्राप्तीही होत नाही तसेच योग्य स्त्रीशिवाय सर्व गोष्टी होत नाहीत. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
That light of Divinity whose bright and blazing lights of bliss shine for us to see and which dispel the darkness of the night and ignorance, may that dawn of light give us the wealth of life, universal, beautiful and auspicious.
Subject of the mantra
Then how should that dawn be and what should it give, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (stri) =woman, (yasyā) =of which illuminator, (ruśantaḥ)=from thieves, bandits, darkness and violent, (bhadrāḥ)= benefactor, (arcayaḥ) =light, (prati) =in front of, (adṛkṣata)=appears, (sā) =that, (uṣāḥ) =giver of good shape like dawn, (naḥ) =to us, (viśvavāram) =covering all, (supeśasam)=having beautiful face, (rayim)=having Chakravarti Rajya and Lakshi, [aura]=and, (sugmyam) =provider of happiness, (sukham) =to delight, (ca) =also, (yathā) =like, (dadāti) =provides, (tathā) =such, (satī) =being, (hi) =only, (etat) =this, (sarvam) =all, (bhavatī) =you, [uṣā hameṃ]=to that us, (dadātu) =give.
English Translation (K.K.V.)
O woman! The one, who illumines the thief, dacoit, darkness and violent, is the light in front of us. It is the one who gives beauty like dawn, the one who covers us all, the one who has a beautiful form, the one with Chakravarti kingdom and Lakshmi (wealth) and the one who gives happiness. As it gives happiness, you dawn being like that, give all this to us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as without the dawn for the day, happiness or the work of the kingdom cannot be accomplished. The attainment of beauty and goodness does not happen without women, similarly all this does not happen without a virtuous woman.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble woman, as the Ushas (Dawn) whose bright auspicious rays are visible all around, gives us desirable, agreeable and easily attainable wealth in the form of health and happiness, in the same manner, you should also give all this and gladden us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( सुग्म्यम् ) सुखेषु भवम् आनन्दम् सुग्मम् इति सुखनाम (निघ० २.६) = Bliss born out of delight. (सुपेशसम् ) शोभनं पेशः रूपं यस्मात् तत् = Beautiful.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As without the Dawn which is followed by day, works cannot be accomplished easily and things cannot be seen in their true form, in the same manner, without a chaste and noble woman, domestic happiness cannot be attained.
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