ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
ए॒षायु॑क्त परा॒वतः॒ सूर्य॑स्यो॒दय॑ना॒दधि॑ । श॒तं रथे॑भिः सु॒भगो॒षा इ॒यं वि या॑त्य॒भि मानु॑षान् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । अ॒यु॒क्त॒ । प॒रा॒ऽवतः॒ । सूर्य॑स्य । उ॒त्ऽअय॑नात् । अधि॑ । श॒तम् । रथे॑भिः । सु॒ऽभगा॑ । उ॒षाः । इ॒यम् । वि । या॒ति॒ । अ॒भि । मानु॑षान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि । शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥
स्वर रहित पद पाठएषा । अयुक्त । परावतः । सूर्यस्य । उत्अयनात् । अधि । शतम् । रथेभिः । सुभगा । उषाः । इयम् । वि । याति । अभि । मानुषान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(एषा) वक्ष्यमाणा (अयुक्त) युंक्ते। अत्र लङर्थे #लुङ् बहुलं छन्दसि इति श्र्नमो लुक्। (परावतः) दूरदेशात् (सूर्य्यस्य) सवितृमंडलस्य (उदयनात्) उदयात् (अधि) उपरान्तसमये (शतम्) असंख्यातान् (रथेभिः) रमणीयैः किरणैः (सुभगा) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्याः सा (उषाः) सुशोभा कान्तिः (इयम्) प्रत्यक्षा (वि) विविधार्थे (याति) प्राप्नोति (अभि) आभिमुख्ये (मानुषान्) मनुष्यादीन् ॥७॥#[लङ्०। सं०]
अन्वयः
पुनस्तद्वत् स्त्रियः स्युरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे स्त्रियो ! यूयं यथैषोषाः परावतः सूर्यस्योदयनादध्यभ्ययुक्त यथेयं सुभगा रथेभिः शतं मानुषान् वियाति तथैव युक्ता भवत ॥७॥
भावार्थः
यथा पतिव्रताः स्त्रियो नियमेन स्वपतीन् सेवन्ते यथोषसः पदार्थानां च दूरदेशात्संयोगो जायते तथैव दूरस्थैः कन्यावरैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतो दूरदेशेऽपि प्रीतिर्वर्द्धेत तथा समीपस्थानां विवाहः क्लेशकारी भवति तथैव दूरस्थानां च सुखदायी जायते ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उषा के समान स्त्री जन हों, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे स्त्री जनो ! जैसे (एषा) यह (उषाः) प्रातःकाल (सूर्य्यस्य) सूर्यमंडल के (उदयनात्) उदय से (अधि) उपरान्त (अध्यभ्ययुक्त) ऊपर सन्मुख से सब में युक्त होती है जिस प्रकार (इयम्) यह (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य्ययुक्त (रथेभिः) रमणीय यानों से (शतम्) असंख्यात (मानुषान्) मनुष्यादिकों को (वियाति) विविध प्रकार प्राप्त होता है वैसे तुम भी युक्त होओ ॥७॥
भावार्थ
जैसे पतिव्रता स्त्रियां नियम से अपने पतियों की सेवा करती हैं। जैसे उषा से सब पदार्थों का दूर देश से संयोग होता है वैसे दूरस्थ कन्या पुत्रों का युवाऽवस्था में स्वयंवर विवाह करना चाहिये जिससे दूरदेश में रहनेवाले मनुष्यों से प्रीति बढ़े जैसे निकटस्थों का विवाह दुःखदायक होता है वैसे ही दूरस्थों का विवाह आनन्दप्रद होता है ॥७॥
विषय
सुभगा उषाः
पदार्थ
१. (एषा) = यह (सुभगा) = उत्तम भग [ऐश्वर्य व सौन्दर्य] से युक्त (उषाः) = उषा (परावतः) = सुदर स्थान में वर्तमान (सूर्यस्य) = सूर्य के (उदयनात्) = उदय होने से अधि ऊपर, अर्थात् पहले ही अयुक्त - अपने रथ को जोतती है और शतम् - सौ - के - सौ वर्षपर्यन्त, अर्थात् मानवजीवन की पूर्ण अवधि तक (रथेभिः) = अपने रथों से (इयम्) = यह उषा (मानुषान्) = विचारपूर्वक कार्य करनेवाले [मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति] पुरुषों की (अभि) = ओर (वियाति) = विशेषरूप से प्राप्त होती है । २. विचारशील पुरुष सदा, आजीवन सूर्योदय से पूर्व प्रातः ही उठते हैं और उठकर अपने कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं । एक गृहिणी को भी उषा के समान सूर्योदय से पूर्व ही उठकर कार्यों में लग जाना चाहिए । ऐसा करने पर ही वह घर के लिए उषा के समान अन्धकार को दूर करनेवाली होती है । वस्तुतः सौ वर्षपर्यन्त जीवन के लिए भी उषः जागरण आवश्यक ही है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम सदा सूर्योदय से पूर्व ही उषः काल में जागनेवाले बनें । जागकर प्रार्थना, ध्यानादिपूर्वक अपने कार्यों में प्रवृत्त हो जाएँ । ऐसा करने पर ही यह उषा हमारे लिए 'सुभगा' उत्तम सौभाग्य को प्राप्त करानेवाली होगी ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(इयं) यह (उषा) उषा, प्रभातकाल की सूर्य-प्रभा जिस प्रकार (परावतः) दूर वर्त्तमान (सूर्यस्य) सूर्य के (उदयनात् अधि) उदय से पूर्व ही (शतं रथेभिः) सैकड़ों रमणीय, मनोहर किरणों से (सुभगा) सुखपूर्वक सेवन करने योग्य होकर (मानुषान् वियाति) मनुष्यों को प्राप्त होती है उसी प्रकार (एषा सुभगा) यह उत्तम सेवनीय, ऐश्वर्य पितृगृह कल्याण से युक्त सुभगा नववधू (सूर्यस्य उदयनाद् अधि) सूर्योदय के पूर्व ही (परावतः) दूरदेश में स्थित अपने पितृगृह से (अयुक्त) अपने रथ में घोड़े जोड़कर आवे। और (रथेभिः) सैकड़ों रथों सहित (मानुषान् अभि वियाति) मनुष्यों की वसती को आवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर उषा के समान स्त्री हों, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्त्रियो ! यूयं यथा एषा उषाः परावतः सूर्यस्य उदयनात् अधि अभि अयुक्त यथा इयं सुभगा रथेभिः शतं मानुषान् वियाति तथा एव युक्ता भवत ॥७॥
पदार्थ
हे (स्त्रियो)= स्त्रियो ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (एषा) वक्ष्यमाणा =कही हुई, (उषाः) सुशोभा कान्तिः= सुशोभित चमक को, (परावतः) दूरदेशात्=दूर के स्थान से, (सूर्य्यस्य) सवितृमंडलस्य=सूर्यमणडल के, (उदयनात्) उदयात्=उदय होने पर, (अधि) उपरान्तसमये = बाद के समय में, (अभि) आभिमुख्ये = सामने की ओर से, (अयुक्त) युंक्ते=जुड़ करके, (यथा)=जैसे, (इयम्) प्रत्यक्षा= प्रत्यक्ष, (सुभगा) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्याः सा= शोभन ऐश्वर्यवाली, (रथेभिः) रमणीयैः किरणैः= रमणीय किरणों के द्वारा, (शतम्) असंख्यातान्=असंख्य, (मानुषान्) मनुष्यादीन्=मनुष्य आदियों के, (वि) विविधार्थे=विविध रूप से, (याति) प्राप्नोति=पहुँचती है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, तुम भी, (युक्ता)=जुड़े हुए, (भवत)=होओ ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे पतिव्रता स्त्रियां नियम से अपने पतियों की सेवा करती हैं। जैसे उषा से सब पदार्थों का दूर देश से संयोग होता है, वैसे ही दूर स्थित कन्या और वर विवाह के कर्तव्य में क्योंकि दूर के स्थान से भी प्रेम को बढ़ाते हैं और समीप स्थित स्थानों का विवाह दुःखदायक होता है। वैसे ही दूर स्थित का विवाह सुख देनेवाला होता है ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्त्रियो) स्त्रियो ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (एषा) कही हुई, (उषाः) सुशोभित चमक को (परावतः) दूर के स्थान से (सूर्य्यस्य) सूर्यमणडल के (उदयनात्) उदय होने पर, (अधि) बाद के समय में (अभि) सामने की ओर से (अयुक्त) जुड़ करके, (यथा) जैसे (इयम्) रमणीय किरणों के द्वारा (शतम्) असंख्य (मानुषान्) मनुष्य आदियों के [पास] (वि) विविध रूप से (याति) पहुँचती है, (तथा) वैसे (एव) ही, [तुम भी] (युक्ता) जुड़े हुए (भवत) होओ ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (एषा) वक्ष्यमाणा (अयुक्त) युंक्ते। अत्र लङर्थे #लुङ् बहुलं छन्दसि इति श्र्नमो लुक्। (परावतः) दूरदेशात् (सूर्य्यस्य) सवितृमंडलस्य (उदयनात्) उदयात् (अधि) उपरान्तसमये (शतम्) असंख्यातान् (रथेभिः) रमणीयैः किरणैः (सुभगा) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्याः सा (उषाः) सुशोभा कान्तिः (इयम्) प्रत्यक्षा (वि) विविधार्थे (याति) प्राप्नोति (अभि) आभिमुख्ये (मानुषान्) मनुष्यादीन् ॥७॥#[लङ्०। सं०] विषयः- पुनस्तद्वत् स्त्रियः स्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे स्त्रियो ! यूयं यथैषोषाः परावतः सूर्यस्योदयनादध्यभ्ययुक्त यथेयं सुभगा रथेभिः शतं मानुषान् वियाति तथैव युक्ता भवत ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा पतिव्रताः स्त्रियो नियमेन स्वपतीन् सेवन्ते यथोषसः पदार्थानां च दूरदेशात्संयोगो जायते तथैव दूरस्थैः कन्यावरैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतो दूरदेशेऽपि प्रीतिर्वर्द्धेत तथा समीपस्थानां विवाहः क्लेशकारी भवति तथैव दूरस्थानां च सुखदायी जायते ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशा पतिव्रता स्त्रिया नियमपूर्वक आपल्या पतींची सेवा करतात. जसा उषेमुळे सर्व पदार्थांचा दूर स्थानांशी संयोग होतो. तसा दूरस्थ मुली व मुले यांचा युवावस्थेत स्वयंवर विवाह केला पाहिजे. ज्यामुळे दूर देशी राहणाऱ्या माणसांशी प्रेम वाढावे. जसा जवळ राहणाऱ्यांचा विवाह दुःखदायक असतो तसा दूर असणाऱ्यांचा विवाह आनंददायक असतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
This dawn, clad in wealth and splendour, saddles her horses long before sunrise and, by a hundred chariots, comes and joins the world of humanity and engages them in their activity.
Subject of the mantra
Then there should be a woman like dawn, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (striyo) =women, (yūyam) =all of you, (yathā) =like, (eṣā) =said, (uṣāḥ) =to beautiful shining, (parāvataḥ)=from the didant place, (sūryyasya) =of the Sunsphere, (udayanāt) =at the time of sunrise, (adhi) =at alatyer time, (abhi) =from the front, (ayukta)= having joined, (yathā)=like, (mānuṣān) =of human etc. [pāsa]=near, (vi)=variously, (yāti)=reaches, (tathā) =in the same way, (eva) =only, [tuma bhī]=you too,, (yuktā) =being linked, (bhavata) =be.
English Translation (K.K.V.)
O women! Just as all of you said, the beautiful glow on the rise of the solar system from a distant place, connecting to the front in later times, as delightful rays reach innumerable human beings in different ways, so too, you Be connected as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as chaste women serve their husbands according to the rules. Just as dawn brings together all things from faraway places, similarly the bride and the bridegroom located far away are involved in the duty of marriage, because they increase love even from distant places and the marriage of near places is painful. In the same way, a marriage in a distant place gives happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O women, as this auspicious Ushas (Dawn), has harnessed her vehicles from afar, before the rising of the sun, and as borne on a hundred chariots of rays she advances on her way to men, in the same way, you should also be.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[परावतः] दूरदेशात् [परावत इति दूरनाम निघ. ३.२६] = From a distant place.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As chaste women serve their husbands regularly, as the Association of the Dawn with the objects is from a distance, in the same manner, the marriage of the bridegrooms should be arranged with the brides of distant places, so that the love between them may ever grow. The marriage between parties living close to each other causes trouble, while as that of the matches belonging to distant places is generally source of happiness.
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