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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 18
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सरस्वती छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    इ॒मा ब्रह्म॑ सरस्वति जु॒षस्व॑ वाजिनीवति। या ते॒ मन्म॑ गृत्सम॒दा ऋ॑तावरि प्रि॒या दे॒वेषु॒ जुह्व॑ति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा । ब्रह्म॑ । स॒र॒स्व॒ति॒ । जु॒षस्व॑ । वा॒जि॒नी॒व॒ति॒ । या । ते॒ । मन्म॑ । गृ॒त्स॒ऽम॒दाः । ऋ॒त॒ऽव॒रि॒ । प्रि॒या । दे॒वेषु॑ । जुह्व॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा ब्रह्म सरस्वति जुषस्व वाजिनीवति। या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरि प्रिया देवेषु जुह्वति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा। ब्रह्म। सरस्वति। जुषस्व। वाजिनीवति। या। ते। मन्म। गृत्सऽमदाः। ऋतऽवरि। प्रिया। देवेषु। जुह्वति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 18
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्त्रीपुरुषविषयमाह।

    अन्वयः

    हे तावरि वाजिनीवति सरस्वति त्वं यथा गृत्समदा येमा ते प्रिया मन्म देवेषु जुह्वति तानि ब्रह्म त्वं जुषस्व ॥१८॥

    पदार्थः

    (इमा) इमानि (ब्रह्म) (सरस्वति) बहुविज्ञानयुक्ते (जुषस्व) सेवस्व (वाजिनीवति) बह्वैश्वर्य्यान्नादियुक्ते (या) यानि (ते) तव (मन्म) विज्ञानानि (गृत्समदाः) गृहीताऽऽनन्दाः (तावरि) सत्याचरणयुक्ते (प्रिया) कमनीयानि विज्ञानानि (देवेषु) विद्याकामेषु (जुह्वति) स्थापयन्ति ॥१८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः पुरुषाः कुमारान्ब्रह्मचारिणः सुशिक्षयाऽध्यापयेयुस्तथा विदुष्यः स्त्रियश्च कुमारीं ब्रह्मचारिणीं सम्यक् शिक्षयित्वाऽध्यापयेयुः ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्री-पुरुष के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (तावरि) सत्याचरणयुक्त (वाजिनीवति) या बहुत ऐश्वर्य और अन्नादि पदार्थयुक्त (सरस्वति) बहुत विज्ञानवाली तू जैसे (गृत्समदाः) आनन्द जिन्होंने ग्रहण किया है वे (या) जिन (इमा) इन (ते) तेरे (प्रिया) मनोहर विज्ञान वा (मन्म) साधारण विद्वानों को (देवेषु) विद्या की कामना करनेवालों में (जुह्वति) स्थापन करते हैं उन (ब्रह्म) विज्ञानों को तू (जुषस्व) सेवन कर ॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् पुरुष कुमार ब्रह्मचारियों को अच्छी शिक्षा से पढ़ावें, वैसे विदुषी स्त्रियाँ कुमारी ब्रह्मचारिणी स्त्रियों को अच्छी शिक्षा से पढ़ावें ॥१८॥

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    विषय

    सरस्वती का आराधन

    पदार्थ

    १. हे (सरस्वति) = ज्ञानाधिष्ठात्रि देवि ! (इमा ब्रह्म जुषस्व) = इन ज्ञानवाणियों का तू प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाली हो । (वाजिनीवति) = हे उत्तम अन्नोंवाली सरस्वति! तू ज्ञानवाणियों का ही सेवन कर। वस्तुतः ज्ञान से हमें अन्नों के सम्पादन की योग्यता भी प्राप्त होती है। पर हम सदा सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करनेवाले हों। सात्त्विक अन्नों का ही सेवन सरस्वती की आराधना के लिए आवश्यक है। २. हे सरस्वति! तू उन (मन्म) = मननीय स्तोत्रों व ज्ञानवाणियों को स्वीकार कर, या जिन ते तेरे स्तोत्रों को (गृत्समदाः) = स्तवन करनेवाले व प्रसन्न रहनेवाले लोग करते हैं । हे (ऋतावरि) = ॠत का हमारे जीवन में रक्षण करनेवाली सरस्वति ! जो (प्रियाः) = तेरे प्रिय होते हैं वे (देवेषु जुह्वति) = देवों के प्रति अपने को देनेवाले होते हैं । वस्तुतः इन 'माता, पिता व आचार्य' आदि देवों के प्रति अपने को देकर ही ये ज्ञानी बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सरस्वती का आराधन हमें ज्ञानी बनाता है, उत्तम अन्न प्राप्त कराता है, हमारे जीवनों में ऋत (सत्य) का धारण करता है। इस आराधना के लिए हमें 'माता, पिता व आचार्य' के प्रति अपना अर्पण अवश्य करना है।

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    विषय

    और विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( सरस्वति ) उत्तम विज्ञानयुक्त विदुषि ! स्त्रि ! हे ( वाजिनीवति ) ऐश्वर्य और अन्न, ज्ञान और बल युक्त ! हे ( ऋतावरि ) सत्याचरण, उत्तम ज्ञान, धनैश्वर्य अन्नादि को स्वीकार करने वाली ! तू ( इमानि ) ये ( ब्रह्म ) उत्तम ज्ञान और ऐश्वर्य ( जुषस्व ) प्राप्त कर, सेवन कर । ( या ) जिन ( प्रिया ) प्रिय, तृप्ति कर ( मन्म ) मनन करने योग्य, मन के प्रिय पदार्थों को ( गृत्समदाः ) विद्वान् होकर आनन्द प्रसन्न रहने वाले विद्वान् जन ( देवेषु ) विद्वानों में ( जुह्वति ) प्रदान करते और स्वयं लेते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान पुरुष, कुमार, ब्रह्मचारी यांना चांगल्याप्रकारे शिकवितात तसे विदुषी स्त्रियांनी कुमारी ब्रह्मचारिणी स्त्रियांना चांगले शिक्षण द्यावे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sarasvati, mother of universal knowledge and speech, commanding the food, energy and speed of the advancement of humanity moving on the paths of truth and rectitude, listen to these chants of homage and accept with delight and homage these your favourite oblations of scientific knowledge which the ecstatic performers in the yajna of education offer to you in honour of the bounties of nature, divinity and humanity for the benefit of the faithful seekers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the men and women are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O truthful highly learned lady ! you are endowed with abundant wealth of knowledge and food materials. Accept lovingly that Vedic knowledge from those people who have enjoyed Bliss and have tried to establish wisdom in the hearts of seekers. You are also equally interested in it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As highly learned men should teach well the students who are bachelors. They impart them good education. Equally it is the duty of highly educated ladies to impart good education to Brahmacharinis (virgin) girl students.

    Foot Notes

    (वाजिनीवति) बह्रेश्वर्य्यात्रादियुक्ते | वाज इति अन्न नाम (NG. 2, 7 ) = Endowed with abundant wealth and food. (मन्म) विज्ञानानि । मन्म-मननानीति यास्काचार्यः ( NRT 10-4-42) = Knowledge. (गृत्समदा:) गृहीताऽऽनन्दाः । = Who have enjoyed Bliss. (देवेषु) विद्याकामेषु। = Among the seekers of wisdom and knowledge.

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