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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    न यत्परो॒ नान्त॑र आद॒धर्ष॑द्वृषण्वसू। दुः॒शंसो॒ मर्त्यो॑ रि॒पुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यत् । परः॑ । न । अन्त॑रः । आ॒ऽद॒धर्ष॑त् । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । दुः॒ऽशंसः॑ । मर्त्यः॑ । रि॒पुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यत्परो नान्तर आदधर्षद्वृषण्वसू। दुःशंसो मर्त्यो रिपुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यत्। परः। न। अन्तरः। आऽदधर्षत्। वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू। दुःऽशंसः। मर्त्यः। रिपुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्याः परो दुःशंसो मर्त्यो रिपुर्यद्यौ वृषण्वसू नादधर्षदन्तरो दुःशंसो मर्त्यो रिपुर्नादधर्षत्तौ कार्येषु नियुङ्ग्ध्वम् ॥८॥

    पदार्थः

    (न) (यत्) यौ (परः) (न) (अन्तरः) मध्यस्थः (आदधर्षत्) प्रगल्भो भवेत् (वृषण्वसू) वृष्णं वर्षयित्रीणां वासयितारौ (दुःशंसः) दुष्टः शंसस्तुतिर्यस्य सः (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (रिपुः) शत्रुः ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र जगति वायुं वह्निं च कोऽपि धर्षयितुं न शक्नोति नैवाऽनया कश्चिच्छत्रुवन्नाशकोऽस्ति तथाऽजेयैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (परः) उत्कृष्ट (दुःशंसः) जिसकी दुष्ट स्तुति विद्यमान वह (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (रिपुः) शत्रु (यत्) जो (वृषण्वसू) वर्षानेवालों को बसाते हैं उनको (न,आदधर्षत्) न लचावे वा (अन्तरः) सामान्य दुष्ट स्तुतिवाला मरणधर्मा जिनको (न) न लचावे उनको कार्यों में नियुक्त करो ॥८॥

    भावार्थ

    इस जगत् में वायु और अग्नि को कोई भी लचाय नहीं सकता और न इनका कोई शत्रु के समान नाश करनेवाला है, उस प्रकार से नहीं पराजित होने योग्य मनुष्यों को होना चाहिये ॥८॥

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    विषय

    अनभिभवनीय शरीरगृह

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार हे (वृषण्वसू) = सब धनों का वर्षण करनेवाले-निवास के लिए आवश्यक सब वसुओं को प्राप्त करानेवाले प्राणापानो! आप हमें उस शरीरगृह को प्राप्त कराओ (यत्) = जिसका कि (न पर:) = न तो बाहर का (न आन्तरः) = और ना ही अन्दर का शत्रु (आदधर्षत्) = किसी प्रकार से धर्षण करनेवाला हो । मन में ही पैदा हो जाने वाले काम-क्रोध आदि आन्तर शत्रु हैं और बाहर से अन्दर घुसनेवाले रोग बाह्य शत्रु हैं। प्राणसाधना होने पर ये दोनों ही शरीर को आक्रान्त नहीं कर पाते। वशीभूत प्राणापान शरीर के रोगों को तथा मन की वासनाओं को विनष्ट करते हैं। २. यह हमारा शरीरगृह ऐसा हो कि दुःशंस:-अशुभ का शंसन करनेवाला (रिपुःमर्त्यः) = शत्रुभूत मनुष्य भी (न आदधर्षत् =) इसका धर्षण न कर पाए। प्राणसाधना से हमारा यह शरीर तेजस्वी बनता है और इन शत्रुओं से शातनीय [नष्ट करने योग्य] नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हमारा शरीर काम-क्रोधादि से, रोगों से, तथा बाह्य-शत्रुओं से अभिभवनीय न हो ।

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    विषय

    उत्तम पुरुषों, नाना अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वृषण्वसू ) धनैश्वर्यों की वृष्टि करने वाले, वर्षणशील उदार पुरुषों को बसाने वाले, बलवान् पुरुषों के बीच में स्वयं रहने वाले, आप दोनों ! ( वर्त्तिः यातम् ) ऐसे मार्ग पर चलें ( यत् ) जिसको ( न परः ) न दूर रहने वाला और ( न अन्तरः ) न बीच में रहने वाला मध्यस्थ ( दुःशंसः ) दुष्कीर्त्तियुक्त बदनाम ( रिपुः मर्त्यः ) शत्रु मनुष्य ही ( आघर्षत् ) आक्रमण कर सके । अथवा—( यत् ) जिन तुम दोनों को दूर और समीप का भी पुरुष न दबा सके वैसे आप दोनों होकर रहो । अथवा—( यत् ) जिस धन को दूर का और समीप का भी न छीन सके वह हमें ( वोढम् ) प्राप्त कराओ । क्रियापद पूर्व या पर मन्त्र से लेने या स्वतन्त्र अध्याहार करने से तीन अर्थ होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या जगात वायू व अग्नीला कोणी पराभूत करू शकत नाही त्यांचा शत्रूप्रमाणे कोणी नाश करू शकत नाही. याप्रमाणे माणसांनीही पराभूत होता कामा नये. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Generous are the Ashvins’ showers of wealth, joy and protection, so strong that no mortal man, no maligner, no enemy internal or external, dare challenge, much less hurt, violate or surpass and overcome them. (Let us all abide by them.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Significance of fire and air are emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! no malevolent man or foe can overcome these mighty fire and air, whether be far off or nigh.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In this world, none can subdue fire and air. There is none who can destroy them like an enemy. So men should be invincible.

    Foot Notes

    (दुःशंसः ) दुष्टः शंसस्तुतिर्यंस्य सः। = Malevolent, wicked.

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