ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 6
ता स॒म्राजा॑ घृ॒तासु॑ती आदि॒त्या दानु॑न॒स्पती॑। सचे॑ते॒ अन॑वह्वरम्॥
स्वर सहित पद पाठता । स॒म्ऽराजा॑ । घ्ृ॒तासु॑ती॒ इति॑ घृ॒तऽआ॑सुती । आ॒दि॒त्या । दानु॑नः । पती॑ । सचे॑ते॒ इति॑ । अन॑वऽह्वरम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता सम्राजा घृतासुती आदित्या दानुनस्पती। सचेते अनवह्वरम्॥
स्वर रहित पद पाठता। सम्ऽराजा। घृतासुती इति घृतऽआसुती। आदित्या। दानुनः। पती। सचेते इति। अनवऽह्वरम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्य्याचन्द्रविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यौ घृतासुती सम्राजा आदित्या दानुनस्पती सर्वं सचेते ता अनवह्वरं साध्नुत ॥६॥
पदार्थः
(ता) तौ (सम्राजा) सम्यग् राजमानौ चक्रवर्त्तिनृपवद्वर्त्तमानौ (घृतासुती) यौ घृतमुदकमासुनुतः (आदित्या) अखण्डितौ (दानुनः) दानस्य (पती) पालकौ (सचेते) सम्बध्नतः (अनवह्वरम्) सरलम् ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या यौ सूर्य्याचन्द्रमसौ सर्वस्य प्रकाशकौ जलप्रदौ सर्वानुषङ्गिणौ सरलं मार्गं गच्छतस्तथा शुद्धे मार्गे गच्छत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य्य और चन्द्रमा के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (घृतासुती) शुद्ध तत्त्व जल को निकालनेवाले (सम्राजा) अच्छे प्रकार प्रकाशमान चक्रवर्त्ति राजा के समान वर्त्तमान (आदित्या) अखण्डित (दानुनः) दान के (पती) पालन करनेवाले सूर्य चन्द्रमा सबका (सचेते) सम्बन्ध करते हैं (ता) उनको (अनवह्वरम्) सरलता जैसे हो वैसे सिद्ध करो ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य चन्द्रमा सबका प्रकाश करने वा जल के देनेवाले सबके अनुसङ्गी सीधे मार्ग से जाते हैं, वैसे शुद्ध मार्ग में जाओ ॥६॥
विषय
निष्कपटता व परस्पर प्रेम
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित (ता) = वे पति-पत्नी (सम्राजा) = सम्यक् दीप्त-व्यवस्थित जीवनवाले होते हैं। (घृतासुती) = [घृतस्य आसुतिर्ययोः] मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति को अपने अन्दर उत्पन्न करनेवाले होते हैं। (आदित्या) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले होते हैं तथा (दानुनः पती) = [दानस्य धनस्य वा सा०] दान के पति होते हैं। सदा दानशील होते हैं। अथवा धन के स्वामी बनते हैं-धन के दास नहीं होते। २. इस प्रकार [क] सम्यक् दीप्त व्यवस्थित जीवनवाले- निर्मल व ज्ञानदीप्त-भद्र के आदाता-दानशील बनकर ये पति-पत्नी (अनवह्वरम्) = अकुटिलता के साथ (सचेते) = परस्पर समवेत होते हैं- मिलकर चलते हैं। इनमें किसी प्रकार से परस्पर वैमनस्य नहीं होता । छलछिद्र ही वैमनस्य का मूल बना करता है। न इनमें छलछिद्र होता है-ना ही वैमनस्य पैदा होता है। -
भावार्थ
भावार्थ - पति-पत्नी व्यवस्थित जीवनवाले निर्मल-दीप्तज्ञानवाले-अच्छाइयों को लेने की वृत्तिवाले-दानशील हों। निष्कपटता से वर्तते हुए परस्पर प्रेम वाले हों ।
विषय
उत्तम पुरुषों, नाना अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( सम्राजा ) सूर्यचन्द्र या सूर्य और विद्युत् अग्नि के समान तेज से चमकने वाले, ( घृतासुती ) जल का आसेचन करते ( आदित्या ) अदिति अर्थात् पृथिवी का उपकार करते, और ( दानुनः पती ) दान, जल वर्षण के पालक हैं। वे दोनों सरल भाव से परस्पर मिलकर रहते हैं उसी प्रकार ( ता ) वे दोनों स्त्री पुरुष भी ( सम्राजा ) सूर्य चन्द्र या सूर्य विद्युत् के समान तेजस्वी एवं सम्राट् चक्रवर्ती राजा के समान सबके शास्ता हों। ( घृतासुती ) घृतयुक्त अन्न का सेवन करें, ‘घृत’ अर्थात् क्षरणशील शुक्र की ‘आसुति’ अर्थात् उत्तम प्रसव या प्रजा उत्पन्न करने वाले हों । ( आदित्या ) अदिति अर्थात् पुत्र के लिये हितकारी एवं एक दूसरे को स्वीकार करनेवाले ( दानुनः पती ) दान करने योग्य धनैश्वर्य के पालक, पति-पत्नी, होकर ( अनवह्वरम् ) कुटिलता या चोरी, लुका छिपी के भावों से रहित होकर, परस्पर किसी प्रकार छल कपट न रखते हुए ( सचेते ) संगत होवें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! सूर्य, चंद्र सर्वांना प्रकाश देतात व जल देतात. सर्वांच्या संगतीने सरळ मार्गाने चालतात तसे शुद्ध मार्गाने चाला. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The brilliant Adityas, inviolable ruling lords of light and peace, the sun and moon of the world, who distil the very essence of life like ghrta and aqua pura, protect and promote the generous charitable people who follow the simple, straight and natural paths of life free from crookedness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of the sun and the moon is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should emulate the shining sun and the moon, which are imperishable (by their real nature) and protector of liberality. They are like the emperor, drawing water up through their rays and unifying all. Accomplish all your works regularly punctually and straights forwardly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should treat upon the path of righteousness like the sun and the moon. You are illuminators of all, and givers of water and unifiers with the objects of the temporal world in their scheduled way straightforwardly, in accordance with ordained by the Almighty God.
Foot Notes
(सम्राजा) सभ्यग् राजमानौ चक्रवत्तनृपबद्वत्त मानौ। = Shining and acting like the emperor and the king. (आदित्या) अखिण्डतो = Imperishable (by nature). (अनवह्वरम् ) सरलम् = Straight forwardly.
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