ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 20
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - द्यावापृथिव्यौ हविर्धाने वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
द्यावा॑ नः पृथि॒वी इ॒मं सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृश॑म्। य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ यच्छताम्॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । नः॒ । पृ॒थि॒वी इति॑ । इ॒मम् । सि॒ध्रम् । अ॒द्य । दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् । य॒ज्ञम् । दे॒वेषु॑ । य॒च्छ॒ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा नः पृथिवी इमं सिध्रमद्य दिविस्पृशम्। यज्ञं देवेषु यच्छताम्॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा। नः। पृथिवी इति। इमम्। सिध्रम्। अद्य। दिविऽस्पृशम्। यज्ञम्। देवेषु। यच्छताम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 20
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे स्त्रीपुरुषौ भवन्तौ द्यावापृथिवी इवाद्य न इमं सिध्रं दिविस्पृशं यज्ञं देवेषु यच्छताम् ॥२०॥
पदार्थः
(द्यावा) सूर्य्यः (नः) अस्माकम् (पृथिवी) भूमिः (इमम्) (सिध्रम्) शास्त्रबोधप्रकाशनिमित्तम् (अद्य) इदानीम् (दिविस्पृशम्) दिवि विज्ञानप्रकाशे स्पृशन्ति येन तम् (यज्ञम्) अध्ययनाध्यापनसङ्गतिमयम् (देवेषु) विद्वत्सु (यच्छताम्) संस्थापयतम् ॥२०॥
भावार्थः
अध्यापकोपदेशकाभ्यां यथा सूर्य्यभूमी सर्वान् सर्वथोन्नयतस्तथा स्त्रीपुरुषेषु विद्याः सम्यक् प्रसारणीयाः ॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे स्त्री पुरुषो ! आप (द्यावापृथिवी) सूर्य्य भूमि के समान (अद्य) आज (नः) हमारे (इमम्) इस (सिध्रम्) शास्त्रबोध के प्रकाश के निमित्त (दिविस्पृशम्) विज्ञान प्रकाश में जिससे स्पर्श करते हैं उस (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने की सङ्गति स्वरूप यज्ञ को (देवेषु) विद्वानों में (यच्छताम्) स्थापन करो ॥२०॥
भावार्थ
अध्यापक और उपदेशकों से जैसे सूर्य्य और भूमि सबको सर्वथा उन्नति देते हैं, वैसे स्त्री पुरुषों में विद्या अच्छे प्रकार विस्तारनी चाहिये ॥२०॥
विषय
सफलता व स्वर्गप्राप्ति
पदार्थ
१. (द्यावापृथिवी) = देदीप्यमान मस्तिष्क तथा विस्तृत शक्तियोंवाला शरीर (नः) = हमारे लिए (इमम्) = इस (यज्ञम्) = यज्ञ को (देवेषु) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित्त (यच्छताम्) = दें– प्राप्त कराएँ । हमारा मस्तिष्क ज्ञानसम्पन्न हो- शरीर शक्तिसम्पन्न हो। इस ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके हम यज्ञशील बनें। इस यज्ञशीलता से हमारे में दिव्यगुणों का विकास हो । २. यह यज्ञ (सिध्रम्) = हमारी इष्ट कामनाओं का साधक हो । 'सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्' । इस लोक में यह यज्ञ हमें सफल बनाए और (अद्य) = आज (दिविस्पृशम्) = [दिव्=स्वर्ग] स्वर्ग के स्पर्श का साधन बने। इस यज्ञ द्वारा हम अपने घर को स्वर्गोपम बना पाएँ। ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य, कुतोऽन्यः कुरुसत्तम' बिना यज्ञ के तो न इस लोक में कल्याण है, न उस लोक में। यज्ञ से ही तो हमारा जीवन कल्याणमय बनता है। जिस घर में गृहवासियों की प्रवृत्ति यज्ञिय होती है - वह घर स्वर्ग सा बन जाता है। -
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान व शक्ति प्राप्त करके हम यज्ञशील बनें। यज्ञ से इस लोक की हमारी कामनाएँ पूर्ण होंगी और हम अपने घरों को स्वर्ग बना सकेंगे ।
विषय
और विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( द्यावापृथिवी ) सूर्य के समान दोनों ही तेजस्वी, एक दूसरे की कामना करने वाले, और पृथिवी के समान विशाल और सर्वाश्रय होकर ( दिवि-स्पृशम् ) उत्तम ज्ञान और शुभ कामना में एक दूसरे का स्पर्श या प्राप्ति या दान प्रतिदान कराने वाले ( इमं ) इस ( सिध्रम् ) नाना सुखों के साधक ( यज्ञं ) उत्तम गृहस्थ, सत्संग, उपासना आदि उत्तम कर्म को ( देवेषु ) विद्वान् पुरुषों के बीच में ( यच्छताम् ) स्थापित करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सूर्य व भूमी सर्वांची संपूर्ण उन्नती करतात. तसे उपदेशक व अध्यापक यांनी स्त्री-पुरुषांमध्ये चांगल्याप्रकारे विद्येचा विस्तार केला पाहिजे. ॥ २० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Heaven and earth, teachers enlightened as the sun and generous as mother earth, let this perfect yajna of ours, this planned yajnic programme of education and enlightenment, which touches the skies and the regions of light now rise high to the divinities and reach the saints and scholars of brilliance across the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the male and female teachers are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men and women! you should establish to-day this Yajna among the enlightened persons permanently. It touches the light of knowledge and then throws light on the meaning of the Shastras, like the sun does on the earth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The teachers and preachers should spread knowledge among all men and women like the sun and earth, which uphold all.
Foot Notes
(सिध्रम् ) शास्त्रबोधप्रकाशनिमित्तम् = The means of throwing light on the meaning or secret of the Shastras. 'दिबिस्पृशम् ) दिवि विज्ञानप्रकाशे स्पृशन्ति येन त्नम्। = By which the light of knowledge is touched. (यज्ञम् ) अध्ययनाध्यापनसङ्गतिमयम् । = The Yajna consisting of reading teaching and association with the enlightened persons.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal