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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 21
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - द्यावापृथिव्यौ हविर्धाने वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ वा॑मु॒पस्थ॑मद्रुहा दे॒वाः सी॑दन्तु य॒ज्ञियाः॑। इ॒हाद्य सोम॑पीतये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । उ॒पऽस्थ॑म् । अ॒द्रु॒हा॒ । दे॒वाः । सी॒द॒न्तु॒ । य॒ज्ञियाः॑ । इ॒ह । अ॒द्य । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वामुपस्थमद्रुहा देवाः सीदन्तु यज्ञियाः। इहाद्य सोमपीतये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। उपऽस्थम्। अद्रुहा। देवाः। सीदन्तु। यज्ञियाः। इह। अद्य। सोमऽपीतये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 21
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ इहाद्य सोमपीतये अद्रुहा यज्ञिया देवा वामुपस्थमासीदन्तु ॥२१॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (उपस्थम्) उपतिष्ठन्ति यस्मिँस्तम् (अद्रुहा) द्रोहादिदोषरहिताः। अत्र सुपामित्याकारादेशः। (देवाः) विद्वांसः (सीदन्तु) (यज्ञियाः) विद्यावृद्धिमययज्ञप्रचारार्हाः (इह) अस्मिन्संसारे (अद्य) इदानीम् (सोमपीतये) यया सोमा विद्यैश्वर्य्याणि जायन्ते तस्यै ॥२१॥

    भावार्थः

    अध्यापकोपदेशकयोः समीपेऽन्या निर्दोषा विदुष्यः स्त्रियः सन्तु यत उभयेषु स्त्रीपुरुषेषु विद्यासुशिक्षे तुल्ये स्यातामिति ॥२१॥ अत्राध्यापकाध्येतृसूर्याचन्द्राग्निवायुपरमेश्वरोपासनास्त्रीपुरुषक्रमवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकचत्वारिंशत्तमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! (इह) इस संसार में (अद्य) इस समय या आज (सोमपीतये) जिससे विद्या और ऐश्वर्य उत्पन्न होते हैं उस क्रिया के लिये (अद्रुहा) द्रोहादि दोषरहित (यज्ञियाः) विद्या वृद्धिमय यज्ञ प्रचार के योग्य (देवाः) विद्वान् जन (वाम्) तुम दोनों के (उपस्थम्) समीप रहनेवाले के (आ, सीदन्तु) समीप बैठें॥२१॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशकों के समीप अन्य निर्दोष विदुषी स्त्री हों, जिससे दोनों स्त्री पुरुषों में विद्या और उत्तम शिक्षा तुल्य हो ॥२१॥ इस सूक्त में अध्यापक और अध्ययनकर्त्ता, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, परमेश्वरोपासना और स्त्री-पुरुष के क्रम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अद्रुहा:-देवाःयज्ञियाः

    पदार्थ

    १. हे द्यावापृथिवी ! (वाम्) = आपकी (उपस्थम्) = गोद में (आसीदन्तु) = बैठें। कौन ? (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष जो कि (अद्रुहा:) = द्रोह की भावना से रहित हैं। (यज्ञियाः) = जो यज्ञशील हैं, अर्थात् लोग ज्ञान प्राप्त करें-शक्तिशाली हों। इस ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके वे द्रोह से रहित हुए हुए देववृत्तिवाले व यज्ञशील बनें। [यहाँ 'अद्रुहा' को द्विवचनान्त रखें तो वह द्यावापृथ्विी का विशेषण होगा। ‘अद्रुहाः' इस रूप में सन्धिछेद करने पर 'देवाः' का ही विशेषण बन जाता है] २. ये सब देव द्रोहवृत्ति से ऊपर उठे हुए यज्ञशील बनकर इह इस जीवन में (अद्य) = आज (सोमपीतये) = सोमपान के लिए हों। सोम-वीर्य का रक्षण करना यज्ञियवृत्ति के होने पर ही सम्भव है। भोगवृत्ति सोम के विनाश का कारण बनती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी वृत्ति द्रोहशून्य हो-दिव्यगुणों को अपनाने का हम प्रयत्न करें- यज्ञशील हों। तभी हम सोमपान - वीर्यरक्षण कर पाएंगे। सम्पूर्ण सूक्त भिन्न-भिन्न शब्दों में जीवन को उत्तम बनाने का उपदेश कर रहा है। इस उत्तमता की प्रेरणा देनेवाले जितेन्द्रिय [इन्द्र] आकुल - पुरुषों को [पिञ्जल] सुखी करनेवाले संन्यासी का अग्रिम सूक्त में वर्णन है। यह कपिञ्जल है - दुःखाकुल संसार को सद्वचनामृतों से सुखी व शान्त करनेवाला है। स्वयं जितेन्द्रिय बनकर औरों को वैसा बनने का उपदेश करता है

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    विषय

    और विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे उत्तम स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) आप दोनों के ( उपस्थम् ) समीप ही आपकी उपस्थिति या गृह में ( अद्रुहाः ) परस्पर द्रोह न करने वाले ( यज्ञियाः ) यज्ञ, परस्पर सत्संग में विराजने वाले वा ‘यज्ञ’ सर्वोपास्य प्रभु परमेश्वर के उपासक वा ‘यज्ञ’ विद्यादि दान करने में कुशल पुरुष ( इह ) सब स्थान में ( सोम-पीतये ) ओषधि अन्न और ऐश्वर्य के पान या उपभोग करने के लिये ( आ सीदन्तु ) आदर पूर्वक विराजें। इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक यांच्याजवळ निर्दोष विदुषी स्त्रिया असाव्यात. ज्यामुळे स्त्री-पुरुषांमध्ये विद्या व उत्तम शिक्षण समान असावे. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Dyava-prthivi, heaven and earth, enlightened and generous teachers and scholars of eminence, who love all and hate none and who are easily accessible and blissfully companionable, may the noble and brilliant seekers of knowledge dedicated to creative and yajnic programmes of learning and education come to you and sit with you for the attainment of the pleasures of knowledge, power and prosperity, and honour and dignity of life here and now.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of male and female teachers are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! may the enlightened persons who are free from malice and are capable to propagate the Yajna (knowledge) sit down always near you, so that all may obtain the wealth of knowledge and wisdom in this world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The teachers and preachers should have collaboration with other highly learned teacheresses of spotless character, so that wisdom and good education may simultaneously spread out among the men and women.

    Foot Notes

    (यज्ञियाः) विद्यावृद्धिमययज्ञप्रचारार्हा:। = Fit to spread the Yajna in the form of the diffusion of knowledge. (सोमपीतये) यथा सोमाविद्यश्वर्य्याणि जायन्ते तस्मै। = For the act which generates the wealth of knowledge and wisdom.

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