ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
अ॒यं शृ॑ण्वे॒ अध॒ जय॑न्नु॒त घ्नन्न॒यमु॒त प्र कृ॑णुते यु॒धा गाः। य॒दा स॒त्यं कृ॑णु॒ते म॒न्युमिन्द्रो॒ विश्वं॑ दृ॒ळ्हं भ॑यत॒ एज॑दस्मात् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । शृ॒ण्वे॒ । अध॑ । जय॑न् । उ॒त । घ्नन् । अ॒यम् । उ॒त । प्र । कृ॒णु॒ते॒ । यु॒धा । गाः । य॒दा । स॒त्यम् । कृ॒णु॒ते । म॒न्युम् । इन्द्रः॑ । विश्व॑म् । दृ॒ळ्हम् । भ॒य॒ते॒ । एज॑त् । अ॒स्मा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं शृण्वे अध जयन्नुत घ्नन्नयमुत प्र कृणुते युधा गाः। यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रो विश्वं दृळ्हं भयत एजदस्मात् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। शृण्वे। अध। जयन्। उत। घ्नन्। अयम्। उत। प्र। कृणुते। युधा। गाः। यदा। सत्यम्। कृणुते। मन्युम्। इन्द्रः। विश्वम्। दृळ्हम्। भयते। एजत्। अस्मात् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राज्ञा राज्यकरणप्रकारमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! सुपरीक्ष्य वृतोऽयं जनः शत्रून् घ्नन्नुतापि युधा जयन् गाः प्र कृणुते उत यमहं राज्यं कर्त्तुं शृण्वे यदाऽयं सत्यं कृणुते तदा विश्वं दृळ्हं भवति यदाऽयमिन्द्रो मन्युं कृणुतेऽध तदास्माद्विश्वं दृढमपि राज्यमेजत् सद्भयते ॥१०॥
पदार्थः
(अयम्) (शृण्वे) (अध) (जयन्) शत्रून् पराजयन् (उत) अपि (घ्नन्) नाशयन् (अयम्) (उत) (प्र) (कृणुते) (युधा) युद्धेन (गाः) पृथिवीराज्यानि (यदा) (सत्यम्) (कृणुते) (मन्युम्) क्रोधम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (विश्वम्) सर्वं राज्यम् (दृळ्हम्) सुस्थिरम् (भयते) बिभेति (एजत्) कम्पते (अस्मात्) राज्ञः ॥१०॥
भावार्थः
हे राजन् ! यां सुकीर्तिं भवाञ्छृणुयाद्ये च राज्यपालनयुद्धकुशलास्तान् वृत्वा सत्याचारेण वर्तित्वा शान्त्या सज्जनान् सम्पाल्य दुष्टान् भृशं दण्डयेत्तदैव सर्वे धर्मपथं विहायेतस्ततो न विचलेयुः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा को राज्य करने का प्रकार अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! उत्तम प्रकार परीक्षा करके स्वीकार किया गया (अयम्) यह जन शत्रुओं का (घ्नन्) नाश करता है और (उत) भी (युधा) युद्ध से (जयन्) शत्रुओं को पराजित करता हुआ (गाः) पृथिवी के राज्यों को (प्र, कृणुते) उत्तम प्रकार करता है (उत) और (शृण्वे) जिसको मैं राज्य करने को सुनता हूँ (यदा) जब (अयम्) यह (सत्यम्) सत्य को (कृणुते) करता है तब (विश्वम्) सब राज्य (दृळ्हम्) उत्तम प्रकार स्थिर होता है, जब यह (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्यवाला राजा (मन्युम्) क्रोध को करता है (अध) इसके अनन्तर तब (अस्मात्) इस राजा से सम्पूर्ण उत्तम प्रकार स्थिर भी राज्य (एजत्) कँपता हुआ (भयते) डरता है ॥१०॥
भावार्थ
हे राजन् ! जिस उत्तम कीर्त्ति को आप सुनें और जो लोग राज्यपालन और युद्ध में चतुर हों, उनका स्वीकार करके सत्याचार से वर्ताव कर शान्ति से सज्जनों का अच्छे प्रकार पालन करके दुष्टजनों को निरन्तर दण्ड देवें, तभी सब जन धर्म के मार्ग का त्याग करके इधर-उधर न चलित होवें ॥१०॥
विषय
'राजस व तामस' भावों का विनाश
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (अध) = अब (जयन्) = विजय करता हुआ (शृण्वे) = सुना जाता है, (उत) = और यह (घ्नन्) = शत्रुओं को मारता हुआ सुन पड़ता है। (उत) = और (अयम्) = यह इन्द्र (युधा) = युद्ध द्वारा, काम-क्रोध आदि शत्रुओं को पराजित करने द्वारा (गाः प्रकृणुते) = ज्ञानवाणियों को हमारे में प्रकाशित करता है। काम-क्रोध आदि के पराजय से, आवरण के हट जाने से ज्ञानवाणियों का प्रकाश हो जाता है। [२] इस प्रकार (यदा) = जब यह इन्द्र (सत्यं मन्युम्) = इस सत्यज्ञान को (कृणुते) = हमारे हृदयों में स्थापित करते हैं, तो (विश्वम्) = सब (दृढम्) = अपने स्थान पर स्थित, अचर और (एजत्) = चर संसार (अस्मात्) = इससे (भयते) = भयभीत हो उठता है । इस सत्यज्ञान के सामने राजस भाव जो अत्यन्त 'एजत्'-गतिवाले हैं तथा तामस भाव जो अत्यन्त निश्चल व 'दृढ़' हैं, वे सब के सब विनष्ट हो जाते हैं और मनुष्य सात्विक स्थिति में हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिये शत्रुओं का पराजय करते हैं। वे हमें वह सत्यज्ञान देते हैं, जिससे सब राजस व तामस भाव नष्ट होकर हमारी सब गुण में स्थिति होती है।
विषय
प्रजा के पालन पोषण की प्रार्थना ।
भावार्थ
(अध) और (अयं जयन्) यह विजय करता हुआ (उत) और (अयम् घ्नन्) शत्रुओं को दण्ड देता हुआ (शृण्वे) प्रख्यात हो। (उत) और (अयम् युधा) यह युद्ध द्वारा (गाः) भूमियों, उनकी निवासी प्रजाओं को भी (युधागाः इव) प्रहार से पशुओं के समान (प्र कृणुते) अपने वश करके उनको उत्तम बनावे (यदा इन्द्रः) जब ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा (सत्यं) सत्य, न्याय के अनुकूल रह (मन्युम्) क्रोध (कृणुते) प्रकट करता है तब (दृळहं विश्वे) दृढ़, विश्व भी (अस्मात्) इससे (भयते) भय करता और (एजत्) कांपता है । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! ज्यांची उत्तम कीर्ती तू ऐकतोस व राज्यपालन व युद्धात जे कुशल असतात त्यांचा स्वीकार करून सत्याचाराने वागून शांतीने सज्जनांचे चांगल्या प्रकारे पालन करून दुष्ट लोकांना निरंतर दंड दे. धर्माचा मार्ग सोडून त्यांनी इकडे तिकडे भटकता कामा नये. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This ruler is Indra, of resounding fame is he, winner of victories, destroyer of the killers and destroyers of the world, fights, and by fighting expands the lands of noble rule by the laws of peace. And when he expresses his righteous anger in action against misrule, the entire world, whether firm or unsettled, fears and shakes in awe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a king rule over the State is stated?
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! when you are appointed on a post after full test, you annihilate enemies or conquer them in the battle and preserve the land belonging to the State. Such a king, possesses great wealth, and about his reputation I hear so much. When he takes a true vow, all becomes firm and when he incurs wrath or righteous indignation, then all, that is stationary or mobile, begin to tremble with fear.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should select those persons as officers whose integrity is beyond the doubt and who are experts in holding firmly the security of the State during the warfare. You should behave with them truthfully, guard righteous men peacefully, and punish severely the wicked, so that people may not go astray from the path of Dharma or righteousness.
Foot Notes
(गाः) पृथिवीराज्यानि । गौरिति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = The kingdom of the earth, land ( एजत्) कम्पते । Trembles.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
जिस व्यक्ति की उत्तम कीर्ति आप सुनें और जो लोग राज्यपालन, प्रशासन, युद्ध में चतुर हों सत्याचारी हों उन को स्वीकार कर के शांति से सज्जनों को अच्छे प्रकार से प्रोत्साहन.दे कर उपयोग करें और दुष्ट जनों को निरंतर द्ण्ड देवें. जिस से समाज के लोग धर्माचार में आस्था बनाए रख कर अधार्मिक कार्यों की ओर न भटकें.
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