ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 12
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
किय॑त्स्वि॒दिन्द्रो॒ अध्ये॑ति मा॒तुः किय॑त्पि॒तुर्ज॑नि॒तुर्यो ज॒जान॑। यो अ॑स्य॒ शुष्मं॑ मुहु॒कैरिय॑र्ति॒ वातो॒ न जू॒तः स्त॒नय॑द्भिर॒भ्रैः ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठकिय॑त् । स्वि॒त् । इन्द्रः॑ । अधि॑ । ए॒ति॒ । मा॒तुः । किय॑त् । पि॒तुः । ज॒नि॒तुः । यः । ज॒जान॑ । यः । अ॒स्य॒ । शुष्म॑म् । मु॒हु॒कैः । इय॑र्ति । वातः॑ । न । जू॒तः । स्त॒नय॑त्ऽभिः । अ॒भ्रैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कियत्स्विदिन्द्रो अध्येति मातुः कियत्पितुर्जनितुर्यो जजान। यो अस्य शुष्मं मुहुकैरियर्ति वातो न जूतः स्तनयद्भिरभ्रैः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठकियत्। स्वित्। इन्द्रः। अधि। एति। मातुः। कियत्। पितुः। जनितुः। यः। जजान। यः। अस्य। शुष्मम्। मुहुकैः। इयर्ति। वातः। न। जूतः। स्तनयत्ऽभिः। अभ्रैः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाजनेषु कस्य राज्ययोग्यतेत्याह ॥
अन्वयः
यो मुहुकैरस्य शुष्मं स्तनयद्भिरभ्रैः सह जूतो वातो न विजयमियर्ति यः स्विदिन्द्रो मातुः कियज्जनितुः पितुः कियदध्येति स एव राजा जजान ॥१२॥
पदार्थः
(कियत्) (स्वित्) अपि (इन्द्रः) (अधि, एति) स्मरति (मातुः) (कियत्) (पितुः) (जनितुः) जनकस्य (यः) (जजान) जायते (यः) (अस्य) (शुष्मम्) बलम् (मुहुकैः) मुहुर्मुहुः कुर्वद्भिः (इयर्ति) गच्छति (वातः) वायुः (न) इव (जूतः) प्राप्तवेगः (स्तनयद्भिः) शब्दायमानैः (अभ्रैः) घनैः सह ॥१२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या मातुः पितुः कियानुपकारोऽस्तीति विज्ञाय प्रत्युपकुर्वन्ति ते मेघवायुभ्यां प्रेरिता विद्युदिव बलं प्राप्य वारं वारं शत्रून् विजित्य प्रकटकीर्त्तयो भवन्ति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजाजनों में किसकी राज्य की योग्यता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (मुहुकैः) बारंबार कार्य्य करनेवालों से (अस्य) इसके (शुष्मम्) बल को (स्तनयद्भिः) शब्द करते हुए (अभ्रैः) मेघों के साथ (जूतः) वेग को प्राप्त (वातः) वायु के (न) तुल्य विजय को (इयर्ति) प्राप्त होता है और (यः) जो (स्वित्) कोई (इन्द्रः) तेजस्वी (मातुः) माता का (कियत्) कितना और (जनितुः) उत्पन्न करनेवाले (पितुः) पिता का (कियत्) कितना उपकार (अधि, एति) स्मरण करता है, वही राजा (जजान) होता है ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य माता और पिता का कितना उपकार है, ऐसा जानकर प्रत्युपकार करते हैं, वे मेघ और वायु से प्रेरित बिजुली के सदृश बल को प्राप्त होकर बारंबार शत्रुओं को जीतकर प्रकट यशवाले होते हैं ॥१२॥
विषय
माता 'वेद' तथा पिता 'प्रभु' का स्मरण
पदार्थ
[१] जीव के 'प्रभु' पिता तो यह 'वेद' जीव की माता के समान हैं 'स्तुतामया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्' । (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (कियत् स्वित्) = भला कितना (मातुः अध्येति) = अपनी इस वेदमाता का स्मरण करता है? वेदमाता के स्मरण का भाव उसका अध्ययन करना है। सामान्यतः मनुष्य वेद का अध्ययन न कर अन्य बातों में ही लगा रहता है। पर यह इन्द्र वेदमाता को न भूलकर उसके अध्ययन का व्रत लेता है । [२] यह इन्द्र (कियत्) = कितना (पितुः) = उस रक्षक (जनितुः) = उत्पादक प्रभु का स्मरण करता है, (यः जजान) = जिस प्रभु ने इसे उत्पन्न किया है। जो प्रभु (अस्य) = इसके (शुष्मम्) = बल को (मुहुकैः) = बारम्बार (इयर्ति) = प्रेरित करते हैं । (स्तनयद्भिः अथ्रैः) = गर्जते हुए मेघों से (जूतः) = प्रेरित (वातः न) = वायु के समान उसको वे प्रभु बलसम्पन्न कर देते हैं। यह व्यक्ति शक्तिशाली होता है और 'पर्जन्यनिनदोपम' बादल के समान गर्जती हुई इसकी वाणी होती है। यह इन्द्र अपने पिता 'महेन्द्र' से ऐक्य स्थापित करने का प्रयत्न करता है। परन्तु सामान्य मनुष्य प्रभु को प्रायः भूला ही रहता है ।
भावार्थ
भावार्थ- वेदमाता व पिता प्रभु का अध्ययन व स्मरण करना ही मनुष्य के लिए हितकर है ।
विषय
विजेता का अंश निर्णय ।
भावार्थ
(यः) जो (मुहुकैः) वार २ कार्य करते हैं ऐसे सहकारी पुरुषों सहित (अस्य) इस राष्ट्र के (शुष्मं) शत्रु शोषक बल को (इयर्ति) सञ्चालित करता और (स्तनयद्भिः) गर्जनाशील (अभ्रैः) मेघों से (जूतः) अधिक वेगवान् (वातः) वायु के तुल्य है । (यः) जो (जजान) स्वयं उत्पन्न होता है वह (इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा (मातुः) माता के तुल्य इस पृथ्वी का (कियत् स्वित् अधि एति) कितना अंश प्राप्त करे और (पितुः) पालन करने वाले और (जनितुः) अन्नादि उत्पन्न करने वाले का (कियत्) कितना अंश हो यह विवेक करने योग्य बात है । (२) परमेश्वर पक्ष में—(यः जजान) जो जगत् को उत्पन्न करता है और (मुहुकैः) वार वार जगत् को बनाने वाले विकृतियुक्त कारणों से इस जगत् के बल को चलाता है । वह (इन्द्रः) इन्द्र परमेश्वर (मातुः) प्रकृति के और (पितुः) पालक सूर्य और (जनितुः) प्रकट कारक वायु वा जल के (कियत् स्वित् अधि एति) कितना २ अंश प्राप्त है । यह नहीं कहा जा सकता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे माता व पिता यांचा अत्यंत उपकार आहे हे जाणून प्रत्युपकार करतात, ती मेघ व वायूने प्रेरित विद्युतप्रमाणे बल प्राप्त करून वारंवार शत्रूंना जिंकून प्रत्यक्ष यश प्राप्त करणारे असतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
How far does Indra reflect on the debt he owes to his mother? How far on that he owes to his father? How does he gratefully acknowledge the gift of his makers? He who refreshes and renews his power and influence repeatedly by virtue of these makers and rejuvenators and moves on like the wind pressed on with thundering clouds?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The fitness of the ruler is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
He can become a worthy king, who like the wind driven by thundering clouds, achieves victory with the aid of the brave warriors. In fact, they help him repeatedly and whom people always remember for his high traditions of family-his mother and father.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons who know the obligation of their parents, serve them sincerely. Like the lightning impelled by the cloud and the wind, they get strength, conquer their enemies repeatedly and become renowned.
Foot Notes
(अधि, एति ) स्मरति । = Remembers. (मुहुकै: ) मुहुर्महुः कुर्वद्भिः । = Helping again and again. (शुष्मम् ) बलम् । शुष्मम् इति बलनाम (NG 2, 9) = Strength. Gratefulness to parents and to help them has been emphasized.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
जिस प्रकार वायु गर्जन शाली, धारावर्षी मेघ के सम्पर्क से शीतत्व गुण ग्रहण करता है, इसी प्रकार राष्ट्र को धोखा देने वाले राष्ट्र शत्रुओं से भी बहुत कुछ सीखा जाता है, उसी प्रकार माता रूप प्रजा और पिता रूप निर्वाचन मण्डल को भी बहुत कुछ सीखना होता है.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal