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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्तु॒त इन्द्रो॑ म॒घवा॒ यद्ध॑ वृ॒त्रा भूरी॒ण्येको॑ अप्र॒तीनि॑ हन्ति। अ॒स्य प्रि॒यो ज॑रि॒ता यस्य॒ शर्म॒न्नकि॑र्दे॒वा वा॒रय॑न्ते॒ न मर्ताः॑ ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒तः । इन्द्रः॑ । म॒घऽवा॑ । यत् । ह॒ । वृ॒त्रा । भूरी॑णि । एकः॑ । अ॒प्र॒तीनि॑ । ह॒न्ति॒ । अ॒स्य । प्रि॒यः । ज॒रि॒ता । यस्य॑ । शर्म॑न् । नकिः॑ । दे॒वाः । वा॒रय॑न्ते । न । मर्ताः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुत इन्द्रो मघवा यद्ध वृत्रा भूरीण्येको अप्रतीनि हन्ति। अस्य प्रियो जरिता यस्य शर्मन्नकिर्देवा वारयन्ते न मर्ताः ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुतः। इन्द्रः। मघऽवा। यत्। ह। वृत्रा। भूरीणि। एकः। अप्रतीनि। हन्ति। अस्य। प्रियः। जरिता। यस्य। शर्मन्। नकिः। देवाः। वारयन्ते। न। मर्ताः ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 19
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कीदृशाञ्जनान् राजा राज्यकर्म्मसु रक्षेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यस्य शर्मन् प्रियो जरिता स्तुतो मघवेन्द्रो यथा सूर्य्योऽप्रतीनि भूरीणि वृत्रैकोऽपि हन्ति तथैव यद्योऽसहायोऽस्य सेनाया ह विद्वान् बहूनां हन्ता वर्त्तेत तं देवा नकिर्वारयन्ते न मर्त्ताश्च ॥१९॥

    पदार्थः

    (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (मघवा) बह्वैश्वर्ययुक्तः (यत्) यः (ह) किल (वृत्रा) वृत्राणि मेघावयवान् (भूरीणि) बहूनि (एकः) असहायः सन् (अप्रतीनि) अप्रीतानि (हन्ति) (अस्य) (प्रियः) कमनीयः (जरिता) स्तोता (यस्य) (शर्मन्) गृहे (नकिः) निषेधे (देवाः) विद्वांसः (वारयन्ते) निषेधयन्ति (न) (मर्त्ताः) अविद्वांसो मनुष्याः ॥१९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सत्योपदेशकान्त्स्वप्रियकारकान् विदुषो राज्यकृत्ये रक्षेत् तस्य पराजयं कर्त्तुं कोऽपि न समर्थो भवेत् ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कैसे जनों को राजा राज्यकर्म्मों में रक्खे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (यस्य) जिसके (शर्मन्) गृह में (प्रियः) मनोहर (जरिता) स्तुति करनेवाला (स्तुतः) प्रशंसित (मघवा) बहुत ऐश्वर्य्य से युक्त (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश प्रतापी राजा जैसे सूर्य्य (अप्रतीनि) नहीं प्रतीत (भूरीणि) बहुत (वृत्रा) मेघों के अवयवों को (एकः) सहायरहित अर्थात् अकेला भी (हन्ति) नाश करता है, वैसे ही (यत्) जो असहाय (अस्य) इसकी सेना में (ह) निश्चय से विद्वान् बहुतों का नाश करनेवाला वर्त्ताव करे उसको (देवाः) विद्वान् लोग (नकिः) नहीं (वारयन्ते) रोकते हैं और (न)(मर्त्ताः) अविद्वान् लोग ॥१९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सत्य के उपदेशक अपने प्रियकारक विद्वानों की राजकृत्य में रक्षा करे, उसका पराजय करने को कोई भी नहीं समर्थ होवे ॥१९॥

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    विषय

    भक्तप्रिय प्रभु

    पदार्थ

    [१] (मघवा) = परमैश्वर्यवाला (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक प्रभु (यद्) = जब (ह) = निश्चय से (स्तुतः) = स्तुति किया जाता है, तो (एकः) = अकेला ही (भूरीणि) = अनेक (अप्रतीनि) = अत्यधिक शक्तिशाली (वृत्रा) = वासनारूप शत्रुओं को (हन्ति) = विनष्ट करता है । (जरिता) = स्तोता (अस्य प्रियः) = इस प्रभु का प्रिय होता है, [२] (यस्य शर्मन्) = जिस प्रभु की शरण में वर्तमान स्तोता को (न कि: देवाः) = न तो देव और (न मर्ता:) = नां ही मनुष्य (वारयन्ते) = रोक पाते हैं। प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बना हुआ यह स्तोता उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता चलता है। इसकी उन्नति को कोई भी रोकनेवाले नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के स्तोता बनते हैं। प्रभु हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। प्रभु को भक्त प्रिय होते हैं।

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    विषय

    आचार्य इन्द्र ।

    भावार्थ

    (यत् ह) जो (एकः) अकेला, अद्वितीय, ही (अप्रतीनि) बे मुकाबले के (भूरीणि) बहुत से (वृत्रा) मेघों के समान नाना विघ्नों को सूर्यवत् (हन्ति) विनाश करता है वह (मघवा) ऐश्वर्यवान् पुरुष (इन्द्रः) ‘इन्द्र’ रूप से (स्तुतः) स्तुति करने योग्य है । (जरिता) स्तुति करने वाला विद्वान् (अस्य प्रियः) इसको सदा प्रिय है । और (यस्य शर्मन्) जिसके शरण में रहने वाले को (नकि देवाः) न विद्वान् और (न मर्त्ताः) न साधारण मनुष्य ही वारण करते हैं । राजप्रियः पुरुष के तुल्य भगवत्प्रिय मनुष्य भी सर्वप्रिय हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा सत्याचे उपदेशक स्वतःला प्रिय असणाऱ्या विद्वानांचे राज्यात रक्षण करतो त्याचा पराजय करण्यास कोणी समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of honour, power and excellence, ruler of the world, admired and worshipped, is the one who all by himself breaks and destroys many irresistible clouds of vapours, darkness and evil. Whoever is dear to him, a celebrant of this lord, and takes shelter under his protection, no one, no human or divine, can obstruct or oppose.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The essential qualities of state employees to be appointed by a king for administrative work are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Neither highly learned truthful persons nor ordinary men can deviate the king from right path because he is possessor of much wealth and mighty like the sun. He destroys alone many un-yielding pieces of clouds (makes the lands irrigated). Lovingly admired, he is able to destroy many adversaries single handed and his warriors also are able to do such mighty deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can defeat a king who appoints highly learned and faithful loving truthful people for various jobs of the State.

    Foot Notes

    (वृन्ना) वृत्त्राणि मेघावयवान् । वृत्र इति मेघनाम (NG 1, 10) The pieces of the cloud. (शर्मन् ) गृहे । शर्म इति गृहनाम । ( NG 3,4 ) = At home.

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    जो राजा देशहित में सत्य बोलने वाले उपदेशक और विद्वानों की सहायता से राज्य की रक्षा करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती.

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