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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा न॒ इन्द्रो॑ म॒घवा॑ विर॒प्शी कर॑त्स॒त्या च॑र्षणी॒धृद॑न॒र्वा। त्वं राजा॑ ज॒नुषां॑ धेह्य॒स्मे अधि॒ श्रवो॒ माहि॑नं॒ यज्ज॑रि॒त्रे ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । इन्द्रः॑ । म॒घऽवा॑ । वि॒ऽर॒प्शी । कर॑त् । स॒त्या । च॒र्ष॒णि॒ऽधृत् । अ॒न॒र्वा । त्वम् । राजा॑ । ज॒नुषा॑म् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ । अधि॑ । श्रवः॑ । माहि॑नम् । यत् । ज॒रि॒त्रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा न इन्द्रो मघवा विरप्शी करत्सत्या चर्षणीधृदनर्वा। त्वं राजा जनुषां धेह्यस्मे अधि श्रवो माहिनं यज्जरित्रे ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नः। इन्द्रः। मघऽवा। विऽरप्शी। करत्। सत्या। चर्षणिऽधृत्। अनर्वा। त्वम्। राजा। जनुषाम्। धेहि। अस्मे इति। अधि। श्रवः। माहिनम्। यत्। जरित्रे ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथामात्यजनादिभी राज्ञो न्याये प्रवर्त्तयनमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यद्यो नो राजा मघवा विरप्शी चर्षणीधृदनर्वेन्द्रस्त्वं सत्या करत् स एवा त्वं जनुषामस्मे माहिनं श्रवोऽधिधेह्येवं जरित्रे च ॥२०॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) राजा (मघवा) धनप्रदः (विरप्शी) महान् (करत्) कुर्य्यात् (सत्या) अविनश्वराणि (चर्षणीधृत्) यो मनुष्यान् धरति (अनर्वा) अविद्यमाना अश्वा यस्य सः (त्वम्) (राजा) प्रकाशमानः (जनुषाम्) जन्मवताम् (धेहि) (अस्मे) अस्माकम् (अधि) (श्रवः) श्रवणमन्नं वा (माहिनम्) महत् (यत्) यः (जरित्रे) स्तावकाय ॥२०॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या अन्याये प्रवर्त्तमानं राजानं निरुन्धन्ति ते सत्यप्रचारकाः सन्तो महत्सुखं प्राप्नुवन्ति ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अमात्य आदि जनों से राजा की न्याय के बीच प्रवृत्ति कराने को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (यत्) जो (नः) हम लोगों के लिये (राजा) प्रकाशमान (मघवा) धनदाता (विरप्शी) बड़े (चर्षणीधृत्) मनुष्यों को धारण करनेवाले (अनर्वा) घोड़ों से रहित (इन्द्रः) राजा (त्वम्) आप (सत्या) नहीं नाश होनेवाले कार्यों को (करत्) सिद्ध करें (एवा) वही आप (जनुषाम्) जन्मवाले (अस्मे) हम लोगों के (माहिनम्) बड़े (श्रवः) श्रवण वा अन्न को (अधि, धेहि) अधिक धारण करें, इसी प्रकार (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये भी ॥२०॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अन्याय में प्रवर्त्तमान राजा को रोकते हैं, वे सत्य के प्रचार करनेवाले होते हुए बड़े सुख को प्राप्त होते हैं ॥२०॥

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    विषय

    मघवा-विरप्शी

    पदार्थ

    [१] (एवा) = इस प्रकार (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक, (मघवा) = ऐश्वर्यशाली, (विरप्शी) = विशिष्ट ज्ञानों का देनेवाला प्रभु (नः) = हमारे लिए (सत्या करत्) = सत्यज्ञानों को करते हैं। प्रभु वेदवाणी द्वारा सब सत्य ज्ञानों को देते हैं। इस ज्ञान द्वारा ही वे (चर्षणीधृत्) = सब मनुष्यों का धारण करनेवाले हैं। और (अनर्वा) = हमें न हिंसित होने देनेवाले हैं। ज्ञान ही हमारा रक्षक बनता है 'ब्रह्म वर्म ममान्तरम्'। [२] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (जनुषाम्) = सब उत्पन्न प्राणियों के (राजा) = नियामक शासक हैं। (अस्मे) = हमारे लिए (श्रवः) = उस ज्ञान को (अधि धेहि) = आधिक्येन धारण करिए। उस ज्ञान को, (यत्) = जिस (माहिनम्) = महनीय ज्ञान को (जरित्रे) = स्तोता के लिए आप धारण करते हैं । वस्तुतः ज्ञान द्वारा ही प्रभु हमारे शत्रुओं का संहार करके हमें उत्कृष्ट जीवनवाला बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञान देते हैं। ज्ञान द्वारा शत्रुसंहार के योग्य बनाते हैं। ज्ञान ही प्रभु का सर्वमहान् धन है। भक्त के लिए प्रभु इसे प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    आचार्य इन्द्र ।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा, अज्ञान नाशक आचार्य और प्रभु परमेश्वर (एव) ही (नः) हमारा (मघवा) ऐश्वर्यवान्, पूज्य स्वामी है। वह (चर्षणीधृत्) सब मनुष्यों को धारण करने वाला (अनर्वा) प्रतिपक्षी अश्वादि से रहित, अपराधी, (विरप्शी) महान् ज्ञानोपदेष्टा होकर (नः) हमें (सत्या करत्) सत्य ज्ञान और अविनश्वर फल प्रदान करे । हे राजन् ! विद्वन् ! प्रभो ! (त्वं जनुषां) तू जन्म लेने वालों में (राजा) सबका राजा है । तू (अस्मे) हमें और (जरित्रे) स्तुति करने वाले प्रार्थी को भी (माहिनं) बड़ा भारी (श्रवः) अन्न, ज्ञान आदि (अधि धेहि) प्रदान कर, हमारे लिये इन पदार्थों को रख ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे अन्यायी राजाला रोखतात. ती सत्याचा प्रचार करणारी असून महान सुख प्राप्त करतात. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus does Indra, lord of wealth, power and excellence, free and irresistible, abounding and generous sustainer of the people, do and achieve what is good and true for the world. O lord of light ruling over the living beings, who create and bear great food, sustenance and honour for the celebrant, the same honour and excellence, pray, create and give for us all and bless us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The ministers and other people should always prompt the king to be just, is highlighted

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you our great ruler are giver of wealth, upholder of men and not using ordinary horses (modes of transport), rather aero planes etc. for distant journeys. They do all truthful acts. Shining with virtues give us the admirers of noble virtues, great knowledge and food.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who restrain the king, inclined to do unjust acts, enjoy much happiness being the preachers of truth.

    Foot Notes

    (विरशी) महान् । विरप्शीति महन्नाम ( NG 3, 3) = Great. (श्रवः) श्रवणमन्नं वा । श्रव इति ग्रन्नाम (NG 2, 7) श्रूयते इति -सतः, तस्मात् शास्त्रश्रवणादि रूपं ज्ञानमपि । = Knowledge or food.

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    जो पुरुष अन्याय मे प्रवर्त्त्मान राजा को रोकते हैं वे सत्य का प्रचार करने वाले होते हुए बडे सुख को प्राप्त होते हैं.

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