ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तव॑ त्वि॒षो जनि॑मन्रेजत॒ द्यौरेज॒द्भूमि॑र्भि॒यसा॒ स्वस्य॑ म॒न्योः। ऋ॒घा॒यन्त॑ सु॒भ्वः१॒॑ पर्व॑तास॒ आर्द॒न्धन्वा॑नि स॒रय॑न्त॒ आपः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्वि॒षः । जनि॑मन् । रे॒ज॒त॒ । द्यौः । रेज॑त् । भूमिः॑ । भि॒यसा॑ । स्वस्य॑ । म॒न्योः । ऋ॒घा॒यन्त॑ । सु॒ऽभ्वः॑ । पर्व॑तासः । आर्द॑न् । धन्वा॑नि । स॒रय॑न्ते । आपः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्विषो जनिमन्रेजत द्यौरेजद्भूमिर्भियसा स्वस्य मन्योः। ऋघायन्त सुभ्वः१ पर्वतास आर्दन्धन्वानि सरयन्त आपः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतव। त्विषः। जनिमन्। रेजत। द्यौः। रेजत्। भूमिः। भियसा। स्वस्य। मन्योः। ऋघायन्त। सुऽभ्वः। पर्वतासः। आर्दन्। धन्वानि। सरयन्ते। आपः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे जनिमन् ! राजन्यस्य जगदीश्वरस्य त्विषो भियसा द्यौ रेजत भूमी रेजत्तथा तव स्वस्य मन्योः शत्रवः कम्पन्ताम्। यथा सुभ्वः पर्वतास ऋघायन्ताऽऽर्दनापो धन्वानि सरयन्ते तथैव तव सेना अमात्याश्च भवन्तु ॥२॥
पदार्थः
(तव) (त्विषः) प्रतापात् (जनिमन्) जन्मवन् (रेजत) रेजते (द्यौः) (रेजत्) रेजते कम्पते (भूमिः) (भियसा) भयेन (स्वस्य) (मन्योः) (ऋघायन्त) बाध्यन्ते (सुभ्वः) सुष्ठु भवन्ति वृष्टयो येभ्यस्ते (पर्वतासः) शैला इवोच्छ्रिता मेघाः (आर्दन्) हिंसन्ति (धन्वानि) स्थलानि (सरयन्ते) गमयन्ति (आपः) जलानि ॥२॥
भावार्थः
हे राजंस्त्वं परमेश्वरवत्पक्षपातं विहाय नृषु पितृवद्वर्त्तस्व यथा जगदीश्वरभयात् सर्वं जगद् व्यवतिष्ठते तथैव तव दण्डभयात् सर्वं जगद्भोगाय कल्पतां यथा सूर्य्यो मेघं बाधते जलवृष्ट्या जगदानन्दयति तथैव शत्रून् बाधित्वा सज्जनानानन्दय ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जनिमन्) जन्मवाले राजन् ! जिस जगदीश्वर के (त्विषः) प्रताप से (भियसा) भय से (द्यौः) अन्तरिक्ष (रेजत) कम्पित होता और (भूमिः) पृथ्वी (रेजत्) कम्पित होती वैसे (तव) आपके (स्वस्य) निज (मन्योः) क्रोध से शत्रु लोग काँपें और जैसे (सुभ्वः) उत्तम प्रकार वृष्टि जिनसे हो ऐसे (पर्वतासः) पर्वतों के सदृश ऊँचे मेघ (ऋघायन्त) बाधित होते (आर्दन्) और नाश करते हैं (आपः) जल और (धन्वानि) स्थल अर्थात् शुष्क भूमियाँ (सरयन्ते) गमन करती हैं, वैसे ही आपकी सेना और मन्त्रीजन होवें ॥२॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप परमेश्वर के सदृश पक्षपात का त्याग करके मनुष्यों में पिता के सदृश वर्त्ताव करो और जैसे जगदीश्वर के भय से सम्पूर्ण जगत् व्यवस्थित रहता है, वैसे ही आप के दण्ड के भय से सब जगत् भोग के लिये कल्पित हो और सूर्य जैसे मेघ को बाधा करता और जलवृष्टि से जगत् को आनन्दित करता है, वैसे ही शत्रुओं को बाधित करके सज्जनों को आनन्द दीजिये ॥२॥
विषय
चराचर के शासक प्रभु
पदार्थ
[१] हे इन्द्र ! (तव) = आपकी (त्विषः) = दीप्ति के (जनिमन्) = प्रादुर्भूत होने पर (द्यौः) = मस्तिष्करूप द्युलोक (रेजत) = चमक उठता है। प्रभु की दीप्ति के प्रादुर्भूत होने पर (भूमिः) = यह शरीररूप पृथिवी भी (रेजद्) = तेजस्विता से दीप्त हो उठती है। [२] इस (स्वस्य) = आत्मा के (मन्योः) = क्रोध के (भियसा) = भय से (सुभ्व:) = महान् (पर्वतासः) = पर्वत (ऋघायन्त) = काँप उठते हैं। 'पर्वत' शब्द मेघ के लिए भी प्रयुक्त होता है। ये पर्वतरूप मेघ काँप उठते हैं और धन्वानि मरुस्थलों में भी (आप: सरयन्ते) = जलों को प्राप्त कराते हैं और (आर्दन्) = उन मरुस्थलों की प्यास बुझाते हैं [पिपासाह अपीडयन् सा०] ।
भावार्थ
भावार्थ- चेतन जगत् में प्रभु की दीप्ति के प्रादुर्भाव होने पर मस्तिष्क व शरीर दोनों ही दीप्त होते हैं। अचेतन जगत् भी मानो प्रभु के क्रोध के भय से काँप उठता है। मेघ मरुस्थल पर भी वर्षा को करके उस मरुस्थल की प्यास बुझा देते हैं।
विषय
प्रतापी का प्रभाव और आतंक कैसा हो ।
भावार्थ
हे (जनिमन्) उत्तम जन्म वाले ! हे सब रत्नों और अन्नों को उत्पन्न करने वाली भूमि के स्वामिन् ! राजन् ! (तव) तेरे (त्विषः) सूर्यवत् कान्ति, तेज वा प्रताप से (द्यौः रेजत) आकाश कांपता है। और (स्वस्य) तेरे अपने (भियसा) भय से और (मन्योः) क्रोध से (भूमिः) भूमि (रेजत्) कांपे। (सुभ्वः) उत्तम २ वृष्टि, अन्नादि पदार्थों को उत्पन्न करने वाली भूमियां और उत्तम ओषधि आदि जनक (पर्वतासः) पर्वतों के तुल्य मेघ और उत्तम भूमियों के स्वामी, उत्तम सामर्थ्यवान् प्रजापालक जन (ऋघायन्त) तेरे बल से बाधित हों (आर्दन्) प्रजा की पीड़ाओं का नाश करें । वे (धन्वानि) निर्जल स्थलों की तरफ़ (आपः) जलों को (सरयन्त) प्राप्त करावे, नहर, झरने आदि बहावें । (२) परमेश्वर के पक्ष में—प्रभु के तेज से सूर्य चलता है, उसके भय से और ज्ञान, बल से भूमि चलती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू परमेश्वराप्रमाणे पक्षपाताचा त्याग करून लोकांबरोबर पित्याप्रमाणे वर्तन कर व जसे जगदीश्वराच्या भयाने संपूर्ण जग व्यवस्थित राहते तसे तुझ्या दंडाच्या भयाने सर्व जग भोगासाठी संरचित असावे व सूर्य जसा मेघाला बाधित करतो व जलवृष्टीने जगाला आनंदित करतो, तसेच शत्रूंना बाधित करून सज्जनांना आनंद दे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By your blazing glory, O lord manifest, does the heaven shine and dazzle. By force and fear of your essential law and power does the earth move in order and the deep clouds and mighty mountains, excellent all bound in law, shower rain on deserts and make the floods of water flow.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the Agni (king) are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king of noble progeny ! by the splendor of God and by His fear, the heaven and earth tremble. Likewise, let your enemies tremble to see your vestures and wealth. The big clouds like the mountains rain well the sun. They are dissipated and through the rains, send waters to all dry and waterless places, because let your armies and ministers be matching with that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should give up all prejudices or of partiality like God, and should deal with your subjects like their father. As the world stands in an order because of the fear of God, so let the world be able to give legitimate enjoyment under your fear. As the sun sends asunder the cloud, and gladdens the world with rains, so give due punishment to the wicked and make good persons happy.
Foot Notes
(ऋधायन्त) ब्राध्यन्ते । = Are compelled, troubled. (पर्वतासः) शैला इवोच्छिता मेघाः । पर्वत इति मेघनाम (NG 1, 10) = Big clouds like the mountains. (धन्वानि) स्थलानि । धन्व शब्दो मरुभूमि वाचक: (धन्वन्निव प्रपा असि ( 10, 4, 1 ) इत्यादि मन्त्रेषु स्पष्टः । धन्वनि मरुभूमौ निरुदक प्रदेश: । प्रपा - प्रापिवन्त्यज्ञ जलमिति प्रपा इवत्व सुखदातासि अर्द-हिंसायाम् = Dry waterless places. (आर्दन) हिंसन्ति । = Destroy.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
हे राजन् आप परमेश्वर की तरह पक्षपात त्याग के मनुष्यो मे पिता के समान बर्ताव करो. परमेश्वर के भय से जैसे सम्पूर्ण जगत व्यवस्थित रहता है, वैसे आप के दण्ड के भय से सब लोग व्यवस्था बनाये रहें. समाज के शत्रुओं को बाधित करके सज्जनों को आनन्द प्रदान कीजिए.
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