ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
समिन्द्रो॒ गा अ॑जय॒त्सं हिर॑ण्या॒ सम॑श्वि॒या म॒घवा॒ यो ह॑ पू॒र्वीः। ए॒भिर्नृभि॒र्नृत॑मो अस्य शा॒कै रा॒यो वि॑भ॒क्ता सं॑भ॒रश्च॒ वस्वः॑ ॥११॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इन्द्रः॑ । गाः । अ॒ज॒य॒त् । सम् । हिर॑ण्या । सम् । अ॒श्वि॒या । म॒घऽवा॑ । यः । ह॒ । पू॒र्वीः । ए॒भिः । नृऽभिः॑ । नृऽत॑मः । अ॒स्य॒ । शा॒कैः । रा॒यः । वि॒ऽभ॒क्ता । स॒म्ऽभ॒रः । च॒ । वस्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्द्रो गा अजयत्सं हिरण्या समश्विया मघवा यो ह पूर्वीः। एभिर्नृभिर्नृतमो अस्य शाकै रायो विभक्ता संभरश्च वस्वः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठसम्। इन्द्रः। गाः। अजयत्। सम्। हिरण्या। सम्। अश्विया। मघऽवा। यः। ह। पूर्वीः। एभिः। नृऽभिः। नृऽतमः। अस्य। शाकैः। रायः। विऽभक्ता। सम्ऽभरः। च। वस्वः ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजा कथं विजयमानन्दं च प्राप्नोतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो मघवेन्द्र एभिर्नृभिः सह नृतमः सन् गाः समजयदश्विया हिरण्या समजयद्यो ह पूर्वीः प्रजाः समजयत्। योऽस्य शाकै रायो विभक्ता वस्वश्च सम्भरो भवेत् स एव राज्यं कर्त्तुमर्हेत् ॥११॥
पदार्थः
(सम्) सम्यक् (इन्द्रः) शत्रुविदारकः (गाः) भूमीः (अजयत्) जयेत् (सम्) (हिरण्या) सुवर्णादीनि धनानि (सम्) (अश्विया) अश्वादियुक्तानि (मघवा) पूजितधनः (यः) (ह) खलु (पूर्वीः) प्राचीनाः प्रजाः (एभिः) (नृभिः) नायकैः सह (नृतमः) अतिशयेन नेता (अस्य) सैन्यस्य (शाकैः) शक्तिभिः (रायः) धनस्य (विभक्ता) विभागकर्त्ता (सम्भरः) यः सम्भरति सः (च) (वस्वः) धनानि ॥११॥
भावार्थः
य उत्तमसहायः प्रशस्तधनसामग्री शत्रूणां जेता यथार्हेभ्यो विभज्य दाता विचक्षणो राजा भवेत् स एव विजयं प्राप्य मोदेत ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा कैसे विजय और आनन्द को प्राप्त होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (मघवा) श्रेष्ठधनयुक्त (इन्द्रः) शत्रुओं का नाशकर्त्ता (एभिः) इन (नृभिः) नायकों के साथ (नृतमः) अतिशय नायक हुआ (गाः) भूमियों को (सम्) उत्तम प्रकार (अजयत्) जीते (अश्विया) घोड़े आदि से युक्त (हिरण्या) सुवर्ण आदि धनों को (सम्) उत्तम प्रकार जीते जो (ह) निश्चय से (पूर्वीः) प्राचीन प्रजाओं को (सम्) उत्तम प्रकार जीते और जो (अस्य) इस सेना की (शाकैः) शक्तियों से (रायः) धन का (विभक्ता) विभाग करनेवाला (वस्वः) धनों को (च) और (सम्भरः) इकट्ठा करनेवाला होवे, वही राज्य करने को योग्य होवे ॥११॥
भावार्थ
जो उत्तम सहाय और उत्तम धन सामग्रीयुक्त तथा शत्रुओं का जीतने और यथायोग्यों के लिये विभाग करके देनेवाला विद्वान् राजा होवे, वही विजय को प्राप्त होकर आनन्द करे ॥११॥
विषय
उन्नति के साधनों का संग्रह
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वे शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले (मघवा) = ऐश्वर्यशाली प्रभु ! (गाः) = ज्ञानेन्द्रियों को (समजयत्) = हमारे लिए विजय करते हैं, (हिरण्या) = हितरमणीय ज्ञान ज्योतियों को (सम्) = [अजयत्] हमारे लिए जीतते हैं (अश्विया) = कर्मेन्द्रियों के समूह को (सम्) = (अजयत्) हमारे लिए विजय करते हैं। वे प्रभु हमारे लिए इनका विजय करते हैं, (यः) = जो (ह) = निश्चय से (पूर्वी:) = इन बहुत सी शत्रु सेनाओं का पराजय करनेवाले हैं। [२] (शाकैः) = सामर्थ्यो के साथ (नृतमः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले वे प्रभु (एभिः नृभिः) = इन उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों के दृष्टिकोण से (अस्य) = इस (रायः) = धन का (विभक्ता) = देनेवाले होते हैं (च) = और (वस्वः) = निवास के लिए सब आवश्यक तत्त्वों के (सम्भरः) = भरण करनेवाले हैं। इन धनों व वसुओं के द्वारा वे प्रभु हमें सब साधनों को प्राप्त कराते हैं। इन साधनों का ठीक प्रयोग करते हुए हम आगे बढ़ जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिए ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानों, धनों व वसुओं को प्राप्त कराते हैं। इनके द्वारा वे हमें उन्नतिपथ पर बढ़ने के योग्य बना देते हैं।
विषय
प्रजा के पालन पोषण की प्रार्थना ।
भावार्थ
(यः) जो (इन्द्रः) शत्रुहन्ता सेनानायक (गाः सम अजयत्) समस्त भूमियों को एक साथ विजय कर लेता है (हिरण्या सम् अजयत्) वह समस्त सुवर्णादि धनों को भी विजय करता है वह (अश्विया) अश्वों से युक्त सेनाओं को (सम् अजयत्) अच्छी प्रकार विजय करता है। और वह (पूर्वीः) अपने से पूर्व विद्यमान प्रजाओं को भी विजय करता है, वह (नृतमः) सब नायकों में श्रेष्ठ नायकोत्तम (एभिः शाकैः नृभिः) इन शक्तिशाली नायकों द्वारा (अस्य रायः) इस समस्त ऐश्वर्य का (विभक्ता) विभाग करने और विविध रूपों में सेवन करने वाला और (वस्वः) समस्त बसे राष्ट्र और ऐश्वर्य का (सम्भरश्च) अच्छी प्रकार धारण पोषण करने हारा होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो उत्तम साह्य करणारा, उत्तम धन सामग्रीयुक्त शत्रूंना जिंकणारा, यथायोग्य विभाजन करणारा विद्वान राजा असेल तर तोच विजय प्राप्त करून आनंद भोगतो. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By his strength and nobility, Indra wins over lands rich in the wealth of cows, precious gold and noble horses. Liberal and excellent he is and wins over the people ancient and far off who may be. And with these best of men and leaders, and by the power and talent of these, while he shares the gains of expansion with others, he also continues to wield and command the wealths of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The ways and means to achieve victory and joy by a king is highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Indra (king) is the lord of opulence and destroyer of enemies. He is the best leader of men, completely wins the land, gold and other kinds of wealth and transports. He guards the learned and aged people. He alone is capable to rule, distributor of the riches by power of his army, and upholder of wealth (or the benefit of all).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone can be happy after achieving victory who has good helpers, and is endowed with good wealth and materials. He conquers enemies and gives wealth with proper pipeline of supplies and distribution and is efficient.
Foot Notes
(शार्क) शक्तिभिः । = With powers. (इन्द्रः) शत्रुविदारकः। = Destroyer of enemies.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
जो राजा उत्तम जनों का धन सम्मान सामग्री से और देश के आन्तरिक शत्रुओं दरिद्र्य, अज्ञान , दुर्भिक्ष और बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने भिन्न भिन्न विभागों का नियंत्रण करता है वही विद्वान राजा विजय को प्राप्त कर के आनन्द से रहता है.
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