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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क्षि॒यन्तं॑ त्व॒मक्षि॑यन्तं कृणो॒तीय॑र्ति रे॒णुं म॒घवा॑ स॒मोह॑म्। वि॒भ॒ञ्ज॒नुर॒शनि॑माँइव॒ द्यौरु॒त स्तो॒तारं॑ म॒घवा॒ वसौ॑ धात् ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्षि॒यन्त॑म् । त्व॒म् । अक्षि॑यन्तम् । कृ॒णो॒ति॒ । इय॑र्ति । रे॒णुम् । म॒घऽवा॑ । स॒म्ऽओह॑म् । वि॒ऽभ॒ञ्ज॒नुः । अ॒शनि॑मान्ऽइव । द्यौः । उ॒त । स्तो॒तार॑म् । म॒घऽवा॑ । वसौ॑ । धात् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षियन्तं त्वमक्षियन्तं कृणोतीयर्ति रेणुं मघवा समोहम्। विभञ्जनुरशनिमाँइव द्यौरुत स्तोतारं मघवा वसौ धात् ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षियन्तम्। त्वम्। अक्षियन्तम्। कृणोति। इयर्ति। रेणुम्। मघऽवा। सम्ऽओहम्। विऽभञ्जनुः। अशनिमान्ऽइव। द्यौः। उत। स्तोतारम्। मघऽवा। वसौ। धात् ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 13
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथा राज्ञोत्तमानुत्तमयोर्दण्डसत्कारौ कर्त्तव्यावित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा मघवा स्तोतारं वसौ धात्तथा यो द्यौरिवोताप्यशनिमानिव विभञ्जनुस्सन् मघवा क्षियन्तमक्षियन्तं कृणोति समोहं रेणुमियर्त्ति तं त्वं शिक्षय ॥१३॥

    पदार्थः

    (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (त्वम्) (अक्षियन्तम्) न निवसन्तम् (कृणोति) (इयर्त्ति) प्राप्नोति (रेणुम्) अपराधम् (मघवा) (समोहम्) सम्यग्गूढम् (विभञ्जनुः) शत्रूणां विभञ्जकः (अशनिमानिव) यथा बहुशस्त्राऽस्त्रः (द्यौः) प्रकाशः (उत) (स्तोतारम्) ऋत्विजम् (मघवा) (वसौ) धने (धात्) दधाति ॥१३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजँस्त्वं योऽपराधं कुर्य्यात्तं दण्डेन विना मा त्यजेः। यथा यजमानो विद्वांसं यज्ञे वृत्वा धनं दत्वा सुखयति तथैव श्रेष्ठान् सभासदो वृत्वैश्वर्य्यं दत्वा सर्वानानन्दय ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा को उत्तम और अनुत्तम का दण्ड और सत्कार करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (मघवा) अत्यन्त धनयुक्त पुरुष (स्तोतारम्) यज्ञ करनेवाले को (वसौ) धन में (धात्) धारण करता है, वैसे जो (द्यौः) प्रकाश के सदृश (उत) और भी (अशनिमानिव) बहुत शस्त्र और अस्त्रवाले के सदृश (विभञ्जनुः) शत्रुओं का नाश करता हुआ (मघवा) श्रेष्ठधन से युक्त पुरुष (क्षियन्तम्) निवास करते और (अक्षियन्तम्) नहीं निवास करते हुए को (कृणोति) स्वीकार करता है (समोहम्) उत्तम प्रकार से छिपे हुए (रेणुम्) अपराध को (इयर्ति) प्राप्त होता है, उसको (त्वम्) आप शिक्षा दीजिये ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप जो अपराध करे उसको दण्ड के विना मत छोड़ो और जैसे यजमान विद्वान् जन को यज्ञ में स्वीकार करके धन देके सुख देता है, वैसे ही श्रेष्ठ सभासदों को स्वीकार करके ऐश्वर्य दे सब को आनन्द दीजिये ॥१३॥

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    विषय

    'दुरितानि परासुव'-'भद्रं आसुव'

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार जो प्रभु का स्मरण करता है उस (त्वम्) = [एकम् 'त्व' शब्दः एकवाची] (क्षियन्तम्) = क्षीण होते हुए को (अक्षियन्तम्) = न क्षीण होता हुआ (कृणोति) = कर देते हैं। और (मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (समोहम्) = मोह की भावना के साथ (रेणुम्) = अधोगति के कारणभूत पाप को राजसी वृत्ति को (इयर्ति) = इस स्तोता से दूर कर देते हैं । [२] (अशनिमान् द्यौः इव) = विद्युत्वाले आकाश की तरह ये प्रभु (विभञ्जनुः) = स्तोता के सब पापों का भञ्जन करनेवाले हैं। (उत) = और (मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (स्तोतारम्) = स्तोता को (वसौ) = सब वसुओं में (धात्) = स्थापित करते हैं। सब अशुभों का विनाश करके निवास के लिए आवश्यक शुभ वस्तुओं को उसे प्राप्त करते हैं। 'दुरितानि परासुव, भद्रं आसुव' ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्तोता के पापों को दूर करके उसे सब वसुओं में स्थापित करते हैं। इस प्रकार वे उसे क्षीण नहीं होने देते।

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    विषय

    उसके उदार कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जो (मघवा) उत्तम धन से सम्पन्न होकर (समोहं) मोह से युक्त (रेणुं) किये अपराध को (इयर्ति) दूर करता है, वही तू (क्षियन्तं) गृह में रहने वाले को (अक्षियन्तं कृणोति) निवास रहित कर देता है, वह (अशिनमान् द्यौः इवः) विद्युत् से युक्त या सूर्य तेज के तुल्य (विभञ्जनुः) शत्रुओं के बल को तोड़ डालने वाला (उत) और (स्तोतारं) स्तुतिशील, विद्वान् उपदेष्टा को (वसौ) धनैश्वर्य में (धात्) स्थापित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जे अपराध करतात त्यांना दंड दिल्याखेरीज सोडू नको व जसे यजमान विद्वान लोकांना यज्ञात धन देऊन सुखी करतो, तसेच श्रेष्ठ सभासदांना ऐश्वर्य देऊन सर्वांना आनंदी कर. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra settles the unsettled, gives a home to the homeless. Commanding power and glory, wielding thunder and lightning like radiance of the sun, he advances to battle and crushes the enemy to dust. And commanding wealth and honour of the world, he establishes the celebrant in a state of excellence and prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    A king should honor good men and equally he should punish the guilty, is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! a rich and worthy person gives wealth to a devoted priest. Equally, a wealthy person who is like the light (of knowledge) or is a warrior applying many weapons is the destroyer of enemies, should be honored; but in case he makes a man dispossess his abode or is found engaged and is committing crimes, he should be punished by you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! if a man commits a crime don't leave him without punishment. As a Yajaman (performer of Yajna) having chosen a scholar as priest in the Yajna, pleases him by giving money (Dakshina ), in the same manner, choose good and virtuous members in your company and give them wealth and make them full of bliss.

    Foot Notes

    (क्षियन्तम् ) निवसन्तम् | = Dwelling. (रेणुम् ) अपराधम् । = Crime, guilt. (समोहम्) सम्यग्गूढम् = Hidden, secret.

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    समाज में दुर्भिक्ष दैवीय आपदा के समय जैसे बाज पक्षी अपने लक्ष पर झपटता उसी प्रकार कुशल राज्य व्यवस्था माता पिता की तरह प्रत्युपकार करते हैं. और इन देश घाति शत्रुओं पर विजय पाकर यश. प्राप्त करते हैं.

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