ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
स॒त्रा सोमा॑ अभवन्नस्य॒ विश्वे॑ स॒त्रा मदा॑सो बृह॒तो मदि॑ष्ठाः। स॒त्राभ॑वो॒ वसु॑पति॒र्वसू॑नां॒ दत्रे॒ विश्वा॑ अधिथा इन्द्र कृ॒ष्टीः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्रा । सोमाः॑ । अ॒भ॒व॒न् । अ॒स्य॒ । विश्वे॑ । स॒त्रा । मदा॑सः । बृ॒ह॒तः । मदि॑ष्ठाः । स॒त्रा । अ॒भ॒वः॒ । वसु॑ऽपतिः । वसू॑नाम् । दत्रे॑ । विश्वाः॑ । अ॒धि॒थाः॒ । इ॒न्द्र॒ । कृ॒ष्टीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्रा सोमा अभवन्नस्य विश्वे सत्रा मदासो बृहतो मदिष्ठाः। सत्राभवो वसुपतिर्वसूनां दत्रे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसत्रा। सोमाः। अभवन्। अस्य। विश्वे। सत्रा। मदासः। बृहतः। मदिष्ठाः। सत्रा। अभवः। वसुऽपतिः। वसूनाम्। दत्रे। विश्वाः। अधिथाः। इन्द्र। कृष्टीः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्भूपतिविषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यदि त्वं वसूनां वसुपतिः सत्राभवो दत्रे विश्वाः कृष्टीरधिथास्तर्ह्यस्य राज्यस्य मध्ये सत्रा विश्वे सोमाः सत्रा विश्वे मदासो बृहतो मदिष्ठा अभवन् ॥६॥
पदार्थः
(सत्रा) सत्याः (सोमाः) सोम्यगुणसम्पन्नाः सभ्या जनाः (अभवन्) भवन्तु (अस्य) राज्ञः (विश्वे) सर्वे (सत्रा) सत्याः (मदासः) आनन्दाः (बृहतः) महान्तः (मदिष्ठाः) अतिशयेनाऽऽनन्दप्रदाः (सत्रा) सत्यः (अभवः) भवेः (वसुपतिः) धनस्य स्वामी (वसूनाम्) धनाढ्यानाम् (दत्रे) दातव्ये हिरण्यादिधने सति। दत्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (विश्वाः) सर्वाः (अधिथाः) धारयेथाः (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (कृष्टीः) मनुष्यादिप्रजाः ॥६॥
भावार्थः
यो राजा यथात्मने प्रियमिच्छेत्तथैव प्रजाभ्यः सुखं प्रदद्यात्तस्यैवोत्तमाः सभासदः परमैश्वर्य्यं च वर्द्धेत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भूपतिविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! जो आप (वसूनाम्) धनाढ्य पुरुषों के बीच (वसुपतिः) धन के स्वामी (सत्रा) सत्य (अभवः) होवें (दत्रे) देने योग्य सुवर्ण आदि धन के होने पर (विश्वाः) सम्पूर्ण (कृष्टीः) मनुष्यादि प्रजाओं को (अधिथाः) धारण करो तो (अस्य) इस राज्य के मध्य में (सत्रा) सत्य (विश्वे) सब (सोमाः) शान्तिगुणसम्पन्न सभ्यजन (सत्रा) सत्य सब (मदासः) आनन्द और (बृहतः) बड़े (मदिष्ठाः) अतीव आनन्द देनेवाले (अभवन्) होवें ॥६॥
भावार्थ
जो राजा जैसे अपने निमित्त प्रिय की इच्छा करे, वैसे ही प्रजाओं के लिये सुख देवे, उसी के उत्तम सभासद् और अत्यन्त ऐश्वर्य बढ़े ॥६॥
विषय
वसुपतिर्वसूनाम्
पदार्थ
[१] (विश्वे सोमाः) = सब सोम (सत्रा) = सचमुच सदा (अस्य अभवन्) = इसके होते हैं। प्रभु ही सब सोमों के स्वामी हैं। उपासक को भी इन सोमों की प्राप्ति होती है। (बृहतः) = इस सब दृष्टिकोणों से बढ़े हुए प्रभु के (मदासः) = हर्ष (सत्रा) = सदा (मदिष्ठा:) = अत्यन्त आनन्दकर होते हैं । प्रभु का उपासक भी इन आनन्दों को अनुभव करता हुआ सदा प्रसन्न रहता है। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (सत्रा) = सचमुच (वसूनां वसुपतिः) = वसुओं के सर्वश्रेष्ठ स्वामी हैं सब धनों के आप मालिक हैं। आप (विश्वाः कृष्टी:) = सब श्रमशील प्रजाओं को (दत्रे) = धन में (अधिथा:) = धारण करते हैं। श्रम करने पर प्रभु से ही हमें धन प्राप्त कराया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु श्रमशीलों को धन प्राप्त करा कर आनन्दित करते हैं ।
विषय
प्रजा के वास्तविक अधिकार निरूपण ।
भावार्थ
(अस्य) इस राजा वा विद्वान् पुरुष के (सोमाः) पुत्र वा शिष्य एवं अधीन प्रेरित वा अभिषिक्त पदाधिकारी जन सब (सत्रा) सत्य व्यवहार से युक्त, ईमानदार (अभवन्) हों। और (विश्वे) सब प्रजाजन (सत्रा) एक साथ वा सत्य व्यवहार से (मदासः) स्वयं हर्षित होने वाले (बृहतः) बड़े (वसूनां) राष्ट्र में वा लोक में बसी प्रजाओं के बीच में (वसुपतिः) सब जीवों और ऐश्वर्यो का स्वामी पुरुष भी (सत्रा अभवः) सत्य व्यवहारवान् हो । हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् अन्न धनों के देनेहारे और शत्रुओं के नाशक राजन् ! तू (दत्रे) दान योग्य ऐश्वर्य वा अन्न सुवर्णादि के प्राप्त करने के लिये (विश्वाः) सब प्रकार की (कृष्टीः) कृषि प्रधान प्रजाओं और शत्रुपीड़क सेनाओं को भी (अधिथाः) पालन पोषण कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा जसे आपले प्रिय इच्छितो तसे त्याने प्रजेला सुख द्यावे. त्यामुळेच उत्तम सभासद व अधिक ऐश्वर्य वाढते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May all the members and sessions of his assembly be good and true and successful. May all the sessions of the joyous celebrations of this great ruling order be happier than the happiest. Indra, O ruling lord president of the wealth of nations, be true to the entire body of people in the state of prosperity and rule with a mind above everything you rule and possess.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the king are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! if you are truly the Lord of good wealth among the rich, you may uphold all men rolling in the abundance of gold and other kind of valuable wealth. His all members (staff) should be truthful and of peaceful disposition, and they should he the givers of great joy to others and enjoying cheer and all bliss for themselves.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king who desires the welfare of his subjects like that of his own, only he can have good members in his council or assembly, and his prosperity would ever grow.
Foot Notes
(सत्ता) सत्याः । सत्त्रा इति सत्यनाम (NG 3, 10) = True (सोमा:) सोम्यगुणसम्पन्नाः सभ्या जनाः । मदासः आनन्दाः । = Civilized men of peaceful disposition.
हिंगलिश (1)
Word Meaning
दारिद्र जन्य दुष्टता के दमन का उपाय हर व्यक्ति को किसी शिल्प का प्रशिक्षण दे कर बेकारी से हटाना और ऐश्वर्य जन्य दुष्टता का उपाय कठोर राज्य व्यवस्था नियम व्यवस्था से होता है.
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