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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    ऋषि: - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ वां॒ येष्ठा॑श्विना हु॒वध्यै॒ वात॑स्य॒ पत्म॒न्रथ्य॑स्य पु॒ष्टौ। उ॒त वा॑ दि॒वो असु॑राय॒ मन्म॒ प्रान्धां॑सीव॒ यज्य॑वे भरध्वम् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । येष्ठा॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हु॒वध्यै॑ । वात॑स्य । पत्म॑न् । रथ्य॑स्य । पु॒ष्टौ । उ॒त । वा॒ । दि॒वः । असु॑राय । मन्म॑ । प्र । अन्धां॑सिऽइव । यज्य॑वे । भ॒र॒ध्व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां येष्ठाश्विना हुवध्यै वातस्य पत्मन्रथ्यस्य पुष्टौ। उत वा दिवो असुराय मन्म प्रान्धांसीव यज्यवे भरध्वम् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। येष्ठा। अश्विना। हुवध्यै। वातस्य। पत्मन्। रथ्यस्य। पुष्टौ। उत। वा। दिवः। असुराय। मन्म। प्र। अन्धाँसिऽइव। यज्यवे। भरध्वम् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे येष्ठाश्विना ! यथा वां रथ्यस्य वातस्य पत्मन् पुष्टौ उत वाऽसुराय दिवोऽन्धांसीव यज्यवे निमित्ते भवतस्तथा हुवध्यै मन्म प्रा भरध्वम् ॥३॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवाम् (येष्ठा) अतिशयेन नियन्तारौ (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (हुवध्यै) ग्रहणाय (वातस्य) वायोः (पत्मन्) पत्मनि मार्गे (रथ्यस्य) रथे याने भवस्य (पुष्टौ) पोषणे (उत) (वा) (दिवः) कामयमानस्य (असुराय) मेघाय (मन्म) विज्ञानम् (प्र) (अन्धांसीव) यथान्नादीनि (यज्यवे) यज्ञानुष्ठानाय यजमानाय वा (भरध्वम्) ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथाऽध्येताध्यापकौ विद्याप्रचाराय प्रयतेते तथैव सर्वैर्मनुष्यैः सततं प्रयततिव्यम् ॥३॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (येष्ठा) अत्यन्त नियम के निर्वाहक (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! जैसे (वाम्) आप दोनों (रथ्यस्य) रथ में उत्पन्न हुए (वातस्य) पवन के (पत्मन्) मार्ग में और (पुष्टौ) पोषण करने में (उत, वा) अथवा (असुराय) मेघ के लिये (दिवः) कामना करते हुए के (अन्धांसीव) अन्न आदिकों के सदृश (यज्यवे) यज्ञारम्भ वा यजमान के लिये कारण होते हो, वैसे (हुवध्यै) ग्रहण करने के लिये (मन्म) विज्ञान का (प्र, आ, भरध्वम्) प्रारम्भ करो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे पढ़ने और पढ़ानेवाले विद्या के प्रचार के लिये प्रयत्न करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को चाहिये कि निरन्तर प्रयत्न करें ॥३॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अध्यापक व विद्यार्थी विद्येच्या प्रचारासाठी प्रयत्न करतात. तसे सर्व माणसांनी निरंतर प्रयत्न करावेत. ॥ ३ ॥

    English (1)

    Meaning

    Ashvins, complementary harbingers of light and life energy, observers and keepers of the laws of nature and guiding principles of humanity, teachers and preachers, I invoke you for extension of the paths of winds and clearance of the channels of progress, and I call upon you for strengthening and sophistication of the chariot powers of humanity. Come ye all fellow men, travellers and friends, concentrate your thoughts and intentions on the life breath of existence flowing from the regions of light as you bear and bring the food and fragrance for the yajna fire.

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