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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र वो॑ वा॒युं र॑थ॒युजं॑ कृणुध्वं॒ प्र दे॒वं विप्रं॑ पनि॒तार॑म॒र्कैः। इ॒षु॒ध्यव॑ ऋत॒सापः॒ पुरं॑धी॒र्वस्वी॑र्नो॒ अत्र॒ पत्नी॒रा धि॒ये धुः॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । वा॒युम् । र॒थ॒ऽयुज॑म् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । प्र । दे॒वम् । विप्र॑म् । प॒नि॒तार॑म् । अ॒र्कैः । इ॒षु॒ध्यवः॑ । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । पुर॑म्ऽधीः । वस्वीः॑ । नः॒ । अत्र॑ । पत्नीः॑ । आ । धि॒ये । धु॒रिति॑ धुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो वायुं रथयुजं कृणुध्वं प्र देवं विप्रं पनितारमर्कैः। इषुध्यव ऋतसापः पुरंधीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। वायुम्। रथऽयुजम्। कृणुध्वम्। प्र। देवम्। विप्रम्। पनितारम्। अर्कैः। इषुध्यवः ऋतऽसापः। पुरम्ऽधीः। वस्वीः। नः। अत्र। पत्नीः। आ। धिये। धुरिति धुः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! येऽत्र इषुध्यव ऋतसापो विद्वांसो वो रथयुजं वायुं धुर्युष्मभ्यं नोऽस्मभ्यं पत्नीरिव धिये वस्वीः पुरन्धीरा धुस्तत्सङ्गेन वायुं रथयुजं प्र कृणुध्वमर्कैः पनितारं विप्रं देवं प्र कृणुध्वम् ॥६॥

    पदार्थः

    (प्र) (वः) युष्मभ्यम् (वायुम्) वेगवन्तम् (रथयुजम्) रथेन युक्तम् (कृणुध्वम्) (प्र) (देवम्) विद्वांसम् (विप्रम्) मेधाविनम् (पनितारम्) स्तावकं धर्म्मेण व्यवहर्त्तारम् (अर्कैः) अर्चनीयैः पदार्थैः (इषुध्यवः) य इषुभिर्युध्यन्ते (ऋतसापः) सत्यसम्बन्धाः (पुरन्धीः) द्यावापृथिव्यौ। पुरन्धी इति द्यावापृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०३.३)(वस्वीः) बहुपदार्थयुक्ताः (नः) अस्मभ्यम् (अत्र) अस्मिञ्जगति (पत्नीः) पत्नीवद्वर्त्तमानाः (आ) (धिये) प्रज्ञायै (धुः) दध्युः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथा पतिव्रता पत्न्यः पत्यादीन् सुखयन्ति तथैव वायुवद्वेगयुक्तं रथं धार्मिकान् विदुषश्च धृत्वा सर्वान् सुखयेयुः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अत्र) इस संसार में (इषुध्यवः) बाणों के द्वारा युद्ध करने वा (ऋतसापः) सत्य सम्बन्ध रखनेवाले विद्वान् जन (वः) आप लोगों के लिये (रथयुजम्) वाहन से युक्त (वायुम्) वेगवाले वायु को (धुः) धारण करें वा आप लोगों और (नः) हम लोगों के लिये (पत्नीः) स्त्रियों के सदृश वर्त्तमानों को और (धिये) बुद्धि के लिये (वस्वीः) बहुत पदार्थों से युक्त (पुरन्धीः) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ) सब प्रकार धारण करें उनके संग से वेगयुक्त वाहन से युक्त को (प्र, कृणुध्वम्) अच्छे प्रकार सिद्ध करें (अर्कैः) प्रशंसनीय पदार्थों से (पनितारम्) स्तुति करने और धर्म्म से व्यवहार करनेवाले (विप्रम्) बुद्धिमान् (देवम्) विद्वान् को (प्र) अच्छे प्रकार प्रकट करो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे पतिव्रता पत्नी पति आदि को सुख देती हैं, वैसे ही वायु के समान वेगयुक्त रथ को और धार्मिक विद्वानों को धारण कर सब को सुखयुक्त करो ॥६॥

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    विषय

    वायु तीव्रगामी साधन का रथ में उपयोग । प्रजाओं के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( वः ) अपने लिये ( रथयुजं ) रथ में जुड़ने वाले अश्व के स्थान पर ( वायुं ) वायु तुल्य वेगवान् साधन को ( प्र कृणुध्वम् ) अच्छी प्रकार लगाओ । ( अर्कैः) उत्तमः अर्चना करने योग्य पदार्थों और मन्त्रों से ( पनितारम् ) स्तुति, उपदेश ( और व्यवहार करने वाले ( विप्रं ) विद्वान् और विविध धनपूरक और ( देवं ) ज्ञान के दाता और ऐश्वर्य के इच्छुक पुरुष का ( प्र कुरुत ) आदर करो । ( अत्र ) इस राष्ट्र में ( इषुध्यवः ) नाना ऐश्वर्यों को चाहने वाली, नाना देशों को जाने वाली और वाण आदि अस्त्रों से युद्ध करने वाली ( ऋतसापः ) धन और ज्ञान का सञ्चय करने वाली ( पुरन्धीः ) राष्ट्र को धारण करने वाली प्रजाओं, सेनाओं और ( वस्वी: ) घर को बसाने वाली ( पत्नी : ) पत्नियों, विवाहित स्त्रियों के तुल्य ( वस्वी: पत्नीः ) ऐश्वर्य युक्त, राष्ट्र में बसी, राष्ट्र-पालक शक्तियों, सेनाओं को भी (धिये ) उत्तम कर्म यज्ञादि सम्पादन के लिये ( आ धुः) आदर पूर्वक धारण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अनुकूल पत्नी का होना

    पदार्थ

    [१] (वायुम्) = वायु देवता को (वः रथयुजम्) = तुम्हारे शरीर रथ से सम्पर्कवाला (प्रकृणुध्वम्) = प्रकर्षेण करो। वायु देवता का शरीर रथ से सम्पर्क का भाव यही है कि तुम निरन्तर क्रियाशील बनो। उस क्रियाशीलता के साथ (देवम्) = प्रकाशमय (विप्रम्) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले [वि-प्पा] (पनितारम्) = स्तुति के योग्य प्रभु को (अर्कैः) = स्तुति साधनभूत मन्त्रों के द्वारा अपने शरीर रथ से युक्त करो । अर्थात् प्रभु का भी सदा स्मरण करो जिससे तुम्हारी क्रियाएँ पवित्र बनी रहें । [२] (इषुध्यवः) = प्रभु की प्रार्थना करनेवाली [implore], (ऋतसापः) = यज्ञों का सेवन करनेवाली, (पुरन्धी:) = पालक व पूरक बुद्धिवाली, (वस्वी:) = घर के निवास को उत्तम बनानेवाली (पत्नीः) = पत्नियाँ (अत्र) = यहां इस गृहस्थ जीवन में (नः) = हमें धिये बुद्धिपूर्वक कर्मों के लिये (आधुः) = स्थापित करें । पत्नियों की अनुकूलता पतियों के मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में बड़ी सहायक होती है। पत्नी का जीवन प्रार्थनामय यज्ञशील होगा तथा यदि वे बुद्धिपूर्वक कर्मों को करती हुई घर को उत्तम बनायेंगी तो पुरुष स्वस्थ मस्तिष्क होते हुए उत्तम कर्मों को सम्पन्न कर पायेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम क्रियाशील हों, प्रभु की उपासनावाले हों। अनुकूल पत्नियों को पाकर स्वस्थ मस्तिष्क से उत्तम कर्मों को सम्पन्न करनेवाले हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी पतिव्रता पत्नी पती इत्यादींना सुख देते. तसे वायुप्रमाणे वेगवान रथ व धार्मिक विद्वान यांना धारण करून सर्वांना सुखी करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With your holy chants of mantras and offers of fragrant inputs into the yajnic fire of corporate action, create the wind and electric energy usable in your transports for progress. Create the brilliant, vibrant, admirable scholar and scientist of energy. And may these warriors of energy and scientific intelligence dedicated to progress and the truth and goodness of the laws of natural and human dynamics, serving heaven and earth, motherly divinities, bear and bring universal light and nourishment for our intellectual and cultural advancement.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of Vishvedevāh further moves on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! with the association of truthful learned persons who desire to fight with arrows with proper use of air to harness in the chariot and who make the heaven and earth full of many articles beneficent to you like our lovely and excellent wives, harness your chariot. That chariot should be speedy like the mind and make the learned person wise who praises God and deals righteously, and manifests (famous) with admirable and good substances for good intellect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as chaste noble women give happiness to their husbands and others, in the same manner, you uphold the vehicles speedy like the wind and righteous enlightened persons and make them all happy.

    Foot Notes

    (पनितारम् ) स्तावकधम्र्मेण व्यवहर्त्तारम् । व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा० ) अत्रोभयार्थग्रहणम् । = To a man who praises God and deals righteously or honestly. (पुरन्धीः) द्यावापृथिव्यौ । पुरन्धीः इति द्यावापृथिवीनाम (NG 3,30)। = The heaven and earth. (विप्रम्) मेधाविनाम । विप्र इति मेधाविनाम (NG 3, 15)। = Wise, very intellect. (अर्के: ) अर्चनीय: पदार्थः । = Earth full of many articles.

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