ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 10
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒श्विना॒ स्वृ॑षे स्तुहि कु॒वित्ते॒ श्रव॑तो॒ हव॑म् । नेदी॑यसः कूळयातः प॒णीँरु॒त ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्विना॑ । सु । ऋ॒षे॒ । स्तु॒हि॒ । कु॒वित् । ते॒ । श्रव॑तः । हव॑म् । नेदी॑यसः । कू॒ळ॒या॒तः॒ । प॒णीन् । उ॒त ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना स्वृषे स्तुहि कुवित्ते श्रवतो हवम् । नेदीयसः कूळयातः पणीँरुत ॥
स्वर रहित पद पाठअश्विना । सु । ऋषे । स्तुहि । कुवित् । ते । श्रवतः । हवम् । नेदीयसः । कूळयातः । पणीन् । उत ॥ ८.२६.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O sage, celebrate the Ashvins in profuse numbers, they would listen to your eulogy, come closest and punish and eliminate the niggards and evaders of yajnic homage.
मराठी (1)
भावार्थ
कूळयात: - ‘कुडि दाहे’ दाहार्थक कुण्ड धातूने बनतो.
टिप्पणी
पणि = ज्याचा व्यवहार चांगला नाही. वाणिज्य इत्यादी व्यवहारात कुटिल पुरुषांना दंड देणे राज्याचे काम आहे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे ऋषे ! त्वम् । अश्विना=अश्विनौ । सुष्टुहि । ते=तव । कुवित्=बहुवारम् । हवम्=आह्वानम् । श्रवतः=शृणुतः । उत=अपि च । नेदीयसः=समीपस्थान् । पणीन् । कूलयातः=विनाशयतः ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी को कहते हैं ।
पदार्थ
(ऋषे) हे ऋषे ! आप (अश्विना+सु+स्तुहि) राजा और मन्त्रिदलों के गुणों को अच्छे प्रकार प्रकाशित कीजिये (ते) तेरी (कुवित्+हवम्) प्रार्थना को अनेक बार (श्रवतः) सुनेंगे (उत) और (नेदीयसः+पणीन्) समीपी कुटिलगामी पुरुषों को (कूलयातः) दण्ड देकर दूर करेंगे ॥१० ॥
भावार्थ
कूलयातः−“कुडि दाहे” । दाहार्थक कुण्ड धातु से बनता है । पणि=जिसका व्यवहार अच्छा नहीं । वाणिज्य आदि व्यवहार में कुटिल पुरुषों को दण्ड देना भी राज्य का काम है ॥१० ॥
विषय
जितेन्द्रियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (ऋषे) विद्वन् ! विद्या व्यवहारादि के द्रष्टा ! तू (अश्विनौ ) राष्ट्र, सेना के स्वामी वा जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष वर्गों को (सुस्तुहि) अच्छी प्रकार उपदेश कर, उनकी अच्छी प्रशंसा कर। ( ते ) तेरे (हवम् ) वचन को वे दोनों ( कुवित् श्रवतः ) बहुत बार श्रवण करते हैं। (उत ) और दोनों ( नेदीयसः पणीन् ) समीपस्थ उपदेष्टा एवं व्यवहारवान् पुरुषों को ( कूलयातः ) तट के समान आश्रय और नदीवत् मर्यादा प्रजा को स्थापित करते हैं । इति सप्तविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
श्रवतो हवम्
पदार्थ
[१] हे (ऋषे तत्त्वद्रष्टः) = पुरुष ! तू (अश्विना) = प्राणापान को (सुस्तुहि) = सम्यक् स्तुत कर । ये प्राणापान (ते) = तेरी (हवम्) = पुकार को (कुवित्) = खूब ही (श्रवतः) = सुनते हैं। हमारी कामनाओं को प्राणापान ही तो पूर्ण करते हैं। [२] ये प्राणापान (नेदीयसः) = अपने अन्तिकतम उपासकों को (उत) = और (पणीन्) = सब व्यवहारों को प्रभु-स्तवन पूर्वक करनेवालों को (कूळयातः) = सुरक्षित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन में यह प्राणसाधना सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है। यह अपने अन्तिकतम उपासकों को सुरक्षित करती है।
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