ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 17
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यद॒दो दि॒वो अ॑र्ण॒व इ॒षो वा॒ मद॑थो गृ॒हे । श्रु॒तमिन्मे॑ अमर्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒दः । दि॒वः । अ॒र्ण॒वे । इ॒षः । वा॒ । मद॑थः । गृ॒हे । श्रु॒तम् । इत् । मे॒ । अ॒म॒र्त्या॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यददो दिवो अर्णव इषो वा मदथो गृहे । श्रुतमिन्मे अमर्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अदः । दिवः । अर्णवे । इषः । वा । मदथः । गृहे । श्रुतम् । इत् । मे । अमर्त्या ॥ ८.२६.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Whether you are up above in the region of light or surfing in the sea or enjoying yourselves in the house of entertainment, listen to my call and come, immortal ones.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने स्वत:ची कामे सोडून प्रजेच्या कामात सदैव तत्पर राहावे. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अमर्त्या=अमर्त्यौ=पुरुषश्रेष्ठौ । अश्विनौ । यद्=यदि । युवाम् । दिवः=क्रीडायाः । अदः+अर्णवे=अमुष्मिन् समुद्रे= विलाससागर इत्यर्थः । मदथः=माद्यथः । वा=यद्वा । इषः=अन्नस्य=भोज्यपदार्थस्य । गृहे माद्यथः । तस्मादपि स्थानादागत्य । मे=मम । स्तोमम् । श्रुतमित्=शृणुतमेव ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसको कहते हैं ।
पदार्थ
(अमर्त्या) हे चिरस्थायी यशोयुक्त पुरुषश्रेष्ठ राजा तथा मन्त्रिदल ! (यत्) यदि आप सब (अदः+दिवः+अर्णवे) उस विलाससागर में (मदथः) क्रीड़ा करते हों (वा+इषः+गृहे) यद्वा अन्न के गृह में आनन्द करते हों, उस-२ स्थान से आकर (मे+श्रुतम्+इत्) मेरी स्तुतियों को सुना ही करें ॥१७ ॥
भावार्थ
राजा निज काम त्याग प्रजाओं के काम में सदा तत्पर रहे हैं ॥१७ ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अमर्त्या ) साधारण मनुष्यों से भिन्न असाधारण पुरुषो ! ( यत् ) जो आप दोनों ( अदः ) उस ( दिवः ) परम ज्ञानमय, तेजोमय प्रभु के ( अर्णवे ) सागरवत् आनन्द में वा ( इषः ) अन्न, और नाना कामना आदि के ( गृहे ) इस गृह या देह में ( मदथः ) प्रसन्न, सुखी, आनन्दवान् होवो तो भी (मे) मुझ आत्मा के विषय में, वा विद्वान् ज्ञानी का वचन अवश्य ( श्रुतम् इत् ) श्रवण किया करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणापान ने मेरी प्रार्थना को कब सुना ?
पदार्थ
[१] प्राणसाधना से शरीर में शक्ति का रक्षण होता है। यह सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि हे प्राणापानो! (यद्) = जब आप (अदः) = उस (दिवः) = ज्ञान के (क्रर्णवे) = समुद्र में (मदथः) = आनन्द का अनुभव करते हो। तब ही यह कहा जा सकता है कि आपने (मे) = मेरी प्रार्थना को (इत्) = निश्चय से (श्रुतम्) = सुना । [२] ये प्राणापान चित्तवृत्ति के निरोध के द्वारा हृदय को बड़ा पवित्र बनाते हैं। उस पवित्र हृदय में प्रभु प्रेरणा सुनाई पड़ती है । मन्त्र में कहते हैं कि (यद) = जब (इषः) = प्रेरणा के गृहे गृहभूत हृदय में आप वा निश्चय से (मदथः) = आनन्दित होते हो तो हे अमर्त्या हमें न मरने देनेवाले व विषय-वासनाओं का शिकार न होने देनेवाले प्राणापानो! आप मेरी प्रार्थना को सुनते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना का यही फल है कि ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और साधक ज्ञानार्णव में तैरता हुआ आनन्द का अनुभव करता है। इसी प्रकार पवित्र हृदय में प्रभु प्रेरणा को सुनता हुआ यह साधक वासनाओं का शिकार नहीं हो जाता।
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