ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 9
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
व॒यं हि वां॒ हवा॑मह उक्ष॒ण्यन्तो॑ व्यश्व॒वत् । सु॒म॒तिभि॒रुप॑ विप्रावि॒हा ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । हि । वा॒म् । हवा॑महे । उ॒क्ष॒ण्यन्तः॑ । व्य॒श्व॒ऽवत् । सु॒म॒तिऽभिः॑ । उप॑ । वि॒प्रौ॒ । इ॒ह । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं हि वां हवामह उक्षण्यन्तो व्यश्ववत् । सुमतिभिरुप विप्राविहा गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । हि । वाम् । हवामहे । उक्षण्यन्तः । व्यश्वऽवत् । सुमतिऽभिः । उप । विप्रौ । इह । आ । गतम् ॥ ८.२६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the holy sage of mental and moral discipline, we invoke and invite you, lords of the showers of generosity. Come to us, O vibrant powers, with holy thoughts and intentions and with the sages of noble mind.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रजेने राजा व मंत्रिमंडळावर प्रेम करावे व विश्वास ठेवावा व राजा आणि मंत्र्यांनी प्रजेच्या हिताकडे लक्ष द्यावे. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह ।
पदार्थः
हे अश्विनौ ! उक्षण्यन्तः=उक्षाणौ=धनादिवर्षणकर्त्तारौ । युवाम् । आत्मन इच्छन्तो वयम् । हि । व्यश्ववत्=जितेन्द्रियर्षिवत् । वां हवामहे । हे विप्रौ=मेधाविनौ ! युवाम् । सुमतिभिः । इह । उपागतम्=उपागच्छतम् ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
हे राजन् तथा मन्त्रिदल ! (उक्षण्यन्तः) धनस्वामी और रक्षक को अपने लिये चाहते हुए हम लोग (हि) निश्चितरूप से (व्यश्ववत्) जितेन्द्रिय ऋषि के समान (वाम्+हवामहे) प्रत्येक शुभकर्म में आपको बुलाते हैं, (विप्रौ) हे मेधावि राष्ट्रदल (सुमतिभिः) सुन्दर बुद्धियों और बुद्धिमान् पुरुषों के साथ (इह) इस यज्ञ में (उपागतम्) आकर विराजमान हूजिये ॥९ ॥
भावार्थ
प्रजागण राजदल के साथ प्रेम और विश्वास करें और राजदल प्रजाओं के हित में सदा लगे रहें ॥
टिप्पणी
॥
विषय
स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( वि-अश्ववत् ) विशेष अश्वसैन्य का स्वामी बलवान् स्त्री पुरुषों को राष्ट्र के शासनादि कार्य के लिये चाहता है उसी प्रकार ( वयं हि ) हम भी ( उक्षण्यन्तः ) उत्तम सन्तानोत्पादक, वीर्य से बिजारों के समान दृढ़, हृष्टपुष्ट बलवान् पुरुषों को चाहते हुए, ( वां हि ) आप दोनों ऐश्वर्यवान्, असत्य व्यवहार से रहित स्त्री पुरुष वर्गों, वा प्रजा-राजवर्गों को ( हवामहे ) प्रार्थना करते हैं कि आप दोनों ( विप्रौ ) बुद्धिमान्, धनादि से विशेष पूर्ण होकर ( सुमतिभिः ) उत्तम बुद्धियों सहित ( उप आगतम् ) हमें प्राप्त होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना के तीन लाभ
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (वयम्) = हम (उक्षण्यन्तः) = शरीर में शक्ति के सेचन की कामना करते हुए (हि) = निश्चय से (वाम्) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। आपके द्वारा ही तो हम इस वीर्यशक्ति को शरीर में सिक्त कर पायेंगे। हम आपको व्यश्ववत् 'व्यश्व' की तरह पुकारते हैं । [२] हे (विप्रौ) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्राणापानो! आप (सुमतिभिः) = कल्याणी मतियों के साथ (इह) = इस जीवनयज्ञ में हमें (उपागतम्) = समीपता से प्राप्त होवो । प्राणसाधना के द्वारा शक्ति का सेचन होकर बुद्धि की सूक्ष्मता भी प्राप्त होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [क] शरीर में शक्ति का सुरक्षण होगा, [ख] हमारे इन्द्रियाश्व उत्तम बनेंगे, [ग] हमारी बुद्धि सूक्ष्म होगी।
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