ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
द॒स्रा हि विश्व॑मानु॒षङ्म॒क्षूभि॑: परि॒दीय॑थः । धि॒यं॒जि॒न्वा मधु॑वर्णा शु॒भस्पती॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद॒स्रा । हि । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् । म॒क्षुऽभिः॑ । प॒रि॒ऽदीय॑थः । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वा । मधु॑ऽवर्णा । शु॒भः । पती॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दस्रा हि विश्वमानुषङ्मक्षूभि: परिदीयथः । धियंजिन्वा मधुवर्णा शुभस्पती ॥
स्वर रहित पद पाठदस्रा । हि । विश्वम् । आनुषक् । मक्षुऽभिः । परिऽदीयथः । धियम्ऽजिन्वा । मधुऽवर्णा । शुभः । पती इति ॥ ८.२६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Wonderful in person and marvellous in deeds, promoters of men of action and intelligence, sweet of disposition, protectors of all that is good, you always fly all over the world by the fastest modes with prompt forces and safeguard the safety and security of the people.
मराठी (1)
भावार्थ
राज्यात ज्या उपायांनी बुद्धी, शुभकर्म, विद्या, धन व व्यवसाय इत्यादींची वृद्धी होईल ते अवश्य करावे ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदाह ।
पदार्थः
अनया पुनरप्यश्विनौ विशिनष्टि । कीदृशौ । दस्रा=दर्शनीयौ । यद्वा “दसु उपक्षये” । शत्रूणामुपक्षयितारौ । पुनः । धियम्+जिन्वा=धियः=मतीः कर्माणि वा प्रीणयन्तौ । मधुवर्णा=मधुरवर्णौ । पुनः । शुभस्पती=कल्याणपती जलस्य पती इति वा । ईदृशौ । युवाम् । मक्षुभिः=शीघ्रगामिभी रथैः सह । विश्वम्=सर्वं वस्तु । आनुषक्=सर्वदा । परिदीयथः=रक्षथः । “हिरवधारणे” । इति युवयोर्महती कीर्तिः ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी वस्तु को कहते हैं ।
पदार्थ
इस ऋचा से भी अश्विद्वय के विशेषण कहते हैं । वे राजा और मन्त्रिदल (दस्रा) दर्शनीय और शत्रुओं के क्षय करनेवाले हों, (धियञ्जिन्वा) प्रजाओं की बुद्धियों और कर्मों को बढ़ावें और (मधुवर्णा) उनके वर्ण मधुर और सुन्दर हों, (शुभस्पती) समय-२ पर जलों के प्रबन्धकर्ता हों, वैसे मन्त्रिदलसहित राजा (मक्षूभिः) शीघ्रगामी रथ और सेनाओं के सहित (विश्वम्) प्रजाओं की सकल वस्तुओं को (आनुषक्) सर्वदा (परिदीयथः) रक्षा करें (हि) निश्चितरूप से और इसी से उनकी कीर्ति भी बढ़ती रहती है ॥६ ॥
भावार्थ
राज्य में जिन उपायों से बुद्धि, शुभकर्म, विद्या, धन और व्यवसाय आदिकों की वृद्धि हो, वे अवश्य करवाये जाएँ ॥६ ॥
विषय
स्त्री-पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( दस्रा ) दर्शनीय, रूपवान्, चरित्रवान्, दुष्टों के नाश करने वाले, ( धियं-जिन्वा ) अपने उत्तम कर्मों से सबको प्रसन्न करने वाले, (मधु-वर्णा) मधुर वर्ण, कान्तिमान् रूपवान्, वा मधु द्वारा एक दूसरे को वरने वाले वा मधुर शब्दों को बोलने वाले, (शुभस्पती) उत्तम शोभाजनक अलंकार युक्त पति पत्नी एवं स्वामी जनो ! आप दोनों ( आनुषक् ) सदा साथ रहते हुए ( मक्षुभिः ) शीघ्रगामी रथों से ( विश्वम् परि-दीयथः ) समस्त संसार का, वा सब काल में परिभ्रमण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
धियञ्जिन्वा मधुवर्णा-शुभस्पती
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! आप (दस्रा हि) = निश्चय से शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले हो । (विश्वम्) = सब व्यक्तियों को (आनुषक्) = निरन्तर (मशूभिः) = शीघ्रगामी इन्द्रियाश्वों के साथ (परिदीयथः) = समन्तात् प्राप्त होते हैं, प्राणसाधना से वासनारूप शत्रुओं का विनाश होता है और ये प्राणापान इन्द्रियों को शक्ति-सम्पन्न बनाकर कार्यों में त्वरित गतिवाला करते हैं। [२] हे प्राणापानो! आप (धियञ्जिन्वा) = बुद्धियों को प्रेरित करनेवाले हो। प्राणसाधना से बुद्धि सूक्ष्म और सूक्ष्मतर बनती चलती है। (मधुवर्णा) = ये प्राणापान अत्यन्त मधुरवर्णवाले कान्तिमान् हैं। शरीर को ये शक्ति रक्षण द्वारा 'मधुवर्ण' बनाते हैं। (शुभस्पती) = ये शरीर में रेतःकणरूप जलों के रक्षक हैं। इस रेतःकण रूप जल के रक्षण के द्वारा ही ये 'धियञ्जिन्वा' व 'मधुवर्णा' होते हैं, वीर्यशक्ति ही बुद्धि को तीव्र व शरीर को तेजस्वी बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान वासनाविलय के द्वारा तीव्र गतिवाले इन्द्रियाश्वों के साथ हमें प्राप्त होते हैं। ये बुद्धि को प्रेरित करते हैं, शरीर को कान्ति सम्पन्न बनाते हैं, शरीर में रेतःकणों का रक्षण करते हैं।
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