ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 25
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - वायु:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स त्वं नो॑ देव॒ मन॑सा॒ वायो॑ मन्दा॒नो अ॑ग्रि॒यः । कृ॒धि वाजाँ॑ अ॒पो धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । नः॒ । दे॒व॒ । मन॑सा । वायो॒ इति॑ । म॒न्दा॒नः । अ॒ग्रि॒यः । कृ॒धि । वाजा॑न् । अ॒पः । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं नो देव मनसा वायो मन्दानो अग्रियः । कृधि वाजाँ अपो धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठसः । त्वम् । नः । देव । मनसा । वायो इति । मन्दानः । अग्रियः । कृधि । वाजान् । अपः । धियः ॥ ८.२६.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vayu, such as you are, brilliant and generous, happy and joyous at heart, always in the forefront of defence and advancement, pray develop our resources of food and water, energy, power and progress, and extend the possibilities of the reach of our science and intelligence.
मराठी (1)
भावार्थ
सेनापतीने अन्न, जल व प्रजेचा उत्साहही विविध उपायांनी वाढवावा. ॥२५॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेव दर्शयति ।
पदार्थः
हे देव ! वायो ! मनसा=स्वकीयेन चेतसा । मन्दानः=हृष्यन् । अग्रियः=अग्रगामी । स त्वम् । नः=अस्माकम् । वाजान्=अन्नानि । अपः=जलानि । धियः=कर्माणि । कृधि=कृणु ॥२५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(देव+वायो) हे दिव्यगुणसम्पन्न नायक ! जिस हेतु आप (मन्दानः) आनन्दित होकर प्रजाओं को आनन्दित कर रहे हैं (अग्रियः) सेनाओं के अग्रगामी होते हैं, इसलिये (स त्वम्) वह आप (मनसा) अपने मन से (नः) हम लोगों के (वाजान्) अन्नों को (अपः) क्षेत्र के लिये जलों को (धियः) और उत्साहों को (कृधि) बढ़ावें ॥२५ ॥
भावार्थ
सेनानी अन्न, जल और प्रजोत्साह को भी विविध उपायों से बढ़ाया करें ॥२५ ॥
विषय
प्रभु से ऐश्वर्य की याचना ।
भावार्थ
हे (देव) प्रभो ! सर्व सुखों के दातः ! हे (वायो) सर्वप्राण ! सर्वसंञ्चालक ! ( सः त्वं ) वह तू ( अग्रियः ) सर्वश्रेष्ठ, (नः मनसा मन्दानः ) हमें ज्ञान से तृप्त, आनन्दित करता हुआ, (वाजान् अपः धियः कृधि ) सत्, ऐश्वर्य, ज्ञान और कर्म प्रदान कर। इति त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वाजान् अपः धियः
पदार्थ
[१] हे (देव) = सब न्यूनताओं व रोगों को पराजित करनेवाले (वायो) = वायुदेव ! (सः त्वम्) = वह तू (नः) = हमें (मनसा) = उत्तम मन के द्वारा (मन्दानः) = आनन्दित करनेवाला हो। (अग्रियः) = तेरा ही सब देवों में प्रमुख स्थान है, तू सर्वश्रेष्ठ है । [२] तू हमारे जीवनों में (वाजान्) = शक्तियों को (कृधि) = कर । (अपः) = रेतःकण रूप जलों को तू करनेवाला हो। (धियः) = बुद्धियों का तू सम्पादन कर।
भावार्थ
भावार्थ- वायु का देवों में प्रथम स्थान है, यह हमारे जीवनों में शक्ति, बुद्धि व रेतःकणों को जन्म देता है। वायु के आराधन से उत्कृष्ट मन को प्राप्त करके यह 'मनु' बनता है। प्रकाश की किरणोंवाला होता हुआ यह 'वैवस्वत' होता है। यह 'मनु वैवस्वत' ही अगले सूक्त का ऋषि है-
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