ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 23
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - वायु:
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
वायो॑ या॒हि शि॒वा दि॒वो वह॑स्वा॒ सु स्वश्व्य॑म् । वह॑स्व म॒हः पृ॑थु॒पक्ष॑सा॒ रथे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवायो॒ इति॑ । या॒हि । शि॒व॒ । आ । दि॒वः । वह॑स्व । सु । सु॒ऽअश्व्य॑म् । वह॑स्व । म॒हः । पृ॒थु॒ऽपक्ष॑सा । रथे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायो याहि शिवा दिवो वहस्वा सु स्वश्व्यम् । वहस्व महः पृथुपक्षसा रथे ॥
स्वर रहित पद पाठवायो इति । याहि । शिव । आ । दिवः । वहस्व । सु । सुऽअश्व्यम् । वहस्व । महः । पृथुऽपक्षसा । रथे ॥ ८.२६.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Vayu, blissful power of defence, security and refinement, come from the regions of light, yoke the great transportive forces to your chariot and bring us the best things we ought to obtain.
मराठी (1)
भावार्थ
सेनापतीने स्थायी सुदृढ रथावर आरूढ होऊन कल्याणासाठी देशभर भ्रमण करावे. ॥२३॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
हे शिव+वायो=कल्याणकारिन् ! त्वम् । दिवः=क्रीडास्थानादपि । आयाहि । स्वश्व्यम्=शोभनाश्वयुक्तं रथम् । सुवहस्व । पृथुपक्षसा=स्थूलपक्षौ । अश्वौ । महः=महति । रथे । वहस्व=योजय ॥२३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(शिव+वायो) हे कल्याणकारी सेनानायक (दिवः+याहि) क्रीड़ास्थान को त्याग करके भी प्रजा की ओर पहुँचें, (स्वश्व्यम्+सुवहस्व) रथ में सुन्दर-२ घोड़े लगाकर प्रजा की सम्पत्ति की वृद्धि के लिये देश में भ्रमण करें । (पृथुपक्षसा) स्थूल पदार्थवाले घोड़ों को (महः+रथे) महान् रथ में (वहस्व) लगावें ॥२३ ॥
भावार्थ
सेनापति स्थायी सुदृढ़ रथों पर आरूढ़ होकर कल्याणार्थ देश में भ्रमण करें ॥२३ ॥
विषय
प्रभु से ऐश्वर्य की याचना ।
भावार्थ
हे ( वायो) ज्ञानवन् ! बलवन् ! हे (शिव) कल्याणकारिन् ! हे जगत् को सूत्रवत् गूंथने वाले प्रभो ! तू ( दिवः ) समस्त सूर्यादि लोकों को ( याहि ) सञ्चालित कर, उनको प्राप्त कर और ( सु-अश्व्यम् ) उत्तम सूर्यादि युक्त जगत् को (वहस्व) धारण कर। और ( रथे ) रथ में ( पृथु-पक्षसा = पृथु वक्षसा ) विस्तृत पार्श्वो वाले दो अश्वों को जैसे वीर हांकता है उसी प्रकार तू भी ( पृथु-पक्षसा) महान् जगत् के वशकारक बल से ( महः वहस्व ) महान् संसार को धारण कर। लिङ्ग-विभक्तिवचनादि श्लेषः। (२) इसी प्रकार हे बलवान् राजन् ! तू ( दिवः स्वश्व्यम् ) भूमि के उत्तम अश्व सैन्य को सञ्चालित कर । बड़े वक्षःस्थल वाले अश्वों को रथ में जोड़।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान- उत्तम इन्द्रियाश्व- तेजस्विता
पदार्थ
[१] (वायो) = हे वायुदेव ! (दिवः) = द्युलोक के, मस्तिष्करूप द्युलोक के (शिवा) = कल्याणकर ज्ञानों को (याहि) = प्राप्त करा। तू (स्वश्व्यम्) = उत्तम इन्द्रियाश्व समूह को (सुवहस्व) = सम्यक् प्राप्त करानेवाला हो। [२] (रक्षे) = इस शरीर रथ में (महः) = तेजस्विता को (वहस्व) = प्राप्त करा । तथा (पृथुपक्षसा) = विशाल ज्ञान व शक्ति के परिग्रहोंवाले [ पक्ष परिग्रहे ] इन्द्रियाश्वों को संयुक्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ- शुद्ध वायु का सम्पर्क मस्तिष्क को दीप्त करके ज्ञान - वृद्धि का कारण बनता है, इन्द्रियाश्वों को उत्तम बनाता है, तथा तेजस्विता को प्राप्त कराता है।
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