ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 20
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - वायु:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यु॒क्ष्वा हि त्वं र॑था॒सहा॑ यु॒वस्व॒ पोष्या॑ वसो । आन्नो॑ वायो॒ मधु॑ पिबा॒स्माकं॒ सव॒ना ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒क्ष्व । हि । त्वम् । र॒थ॒ऽसहा॑ । यु॒वस्व॑ । पोष्या॑ । व॒सो॒ इति॑ । आत् । नः॒ । वा॒यो॒ इति॑ । मधु॑ । पि॒ब॒ । अ॒स्माक॑म् । सव॑ना । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युक्ष्वा हि त्वं रथासहा युवस्व पोष्या वसो । आन्नो वायो मधु पिबास्माकं सवना गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयुक्ष्व । हि । त्वम् । रथऽसहा । युवस्व । पोष्या । वसो इति । आत् । नः । वायो इति । मधु । पिब । अस्माकम् । सवना । आ । गहि ॥ ८.२६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vayu, vibrant motive power of nature and humanity, harness your strong chariot horses and, O Vasu, giver of peaceful home and settlement with security, yoke them to social good. Come, join our corporate yajna of social development, taste and celebrate the joy of our achievement.$(This mantra may be applied to the head of the forces of law and order for internal security and the commander of defence forces for security against external forces.)
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा सेनापती नाना प्रकारचे विजय मिळवितो तेव्हा त्याचा पूर्ण सत्कार व्हावा व प्रत्येक शुभ कर्मात त्याला बोलाविले जावे. ॥२०॥
संस्कृत (1)
विषयः
सेनानायककर्त्तव्यमाह ।
पदार्थः
हे वायो=सेनानायक ! वायुरिह सेनानायकः । त्वं हि । रथासहा=रथयोग्यौ । अश्वौ । रथे । युक्ष्व=योजय । हे वसो=वासक ! पोष्या=पोषणीयौ अश्वौ । युवस्व=संग्रामेषु मिश्रय । आत्=अनन्तरम् । नः=अस्माकम् । मधु । पिब अस्माकम् । सवना=सवनानि । आगहि=आगच्छ ॥२० ॥
हिन्दी (3)
विषय
सेनानायक का कर्त्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(वायो) हे सेनानायक ! (त्वं+हि+रथासहा) आप रथयोग्य घोड़ों को रथ में (युक्ष्व) जोड़ो । (वसो) हे अपने पुरुषार्थ से सबको वास देनेहारे सेनापते ! (पोष्या) पोष पालकर शिक्षित किये हुए घोड़ों को (युवस्व) संग्राम में लगाओ (आत्+नः+मधु+पिब) तब संग्रामों में विजयलाभ के पश्चात् हम लोगों के दिये हुए मधुर पदार्थ और सत्कार ग्रहण करें और (सवना+आगहि) प्रत्येक शुभकर्म में आवें ॥२० ॥
भावार्थ
जब सेनापति नाना विजय कर आवें, तब उनका पूरा सत्कार हो और प्रत्येक शुभकर्म में वे बुलाये जाएँ ॥२० ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वसो ) वसु ! ब्रह्मचारिन् ! विद्वन् ! ( त्वं ) तू ( हि ) अवश्य (रथ-सहा) रथ को उठाने में समर्थ, अश्वों के समान अपने इन्द्रिय और मन दोनों को ( युक्ष्व ) सन्मार्ग में लगा। और (पोष्या ) पोषण करने योग्य, दृड़ अंगों को ( युवस्व ) कार्यों में योजित कर। इसी प्रकार प्रजा का बसाने वाला विद्वान् वा राजा भी रथ में लगने योग्य अश्वों के समान ही स्त्री पुरुषों को राष्ट्रकार्य में वा गृहस्थ में जोड़े और उनको मिलावे। हे ( वायो ) वायुवत् बलशालिन् ! वा ज्ञान के इच्छुक, ज्ञान देने वाले ! ( आत् ) अनन्तर तू ( नः ) हमारे ( मधु ) मधुर जल, अन्न और मधुपर्क आदि का पान, उपभोग कर। और (अस्माकम् ) हमारे ( सवना ) यज्ञों, गृहों आर ऐश्वर्यो को ( आ गहि ) प्राप्त कर। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
शुद्ध वायु के सम्पर्क के लाभ
पदार्थ
[१] 'वायु' ही प्राणरूप होकर नासिका में प्रवेश करता है। सो अब वायु से आराधना करते हैं कि हे वायो ! (त्वम्) = तू (हि) = निश्चय से (रथासहा) = शरीर- रथ के वहन में समर्थ इन्द्रियाश्वों को (युक्ष्वा) = शरीर-रथ में जोत । हे (वसो) = वसानेवाले वायुदेव ! तू (पोष्या) = उत्तम पोषणवाले दृढ़ अंगों को (युवस्व) = इस शरीर में मिश्रित कर [मिला]। इस शरीर रथ का एक-एक अंग दृढ़ हो । [२] (आत्) = अब, हे वायो ! (नः) = हमारे (मधु) = सब ओषधियों के सारभूत, भोजन से रस-रुधिर आदि क्रम से उत्पन्न हुए हुए अत्यन्त सारभूत सोम को तू (पिब) = पी, शरीर में ही व्याप्त कर। (अस्माकम्) = हमारे (सवना) = जीवन के 'प्रातः, मध्याह्न व सायं' के तीनों सवनों में (आगहि) = तू हमें प्राप्त हो। हम सदा शुद्ध वायु के सम्पर्क में होते हुए तीनों सवनों में सोम का पान करें, वीर्य का रक्षण करें।
भावार्थ
भावार्थ- शुद्ध वायु का सम्पर्क, शुद्ध वायु में होनेवाला प्राणायाम, हमारी इन्द्रियों को सशक्त बनाये, अंगों को दृढ़ करे, सोम को शरीर में सुरक्षित करे तथा दीर्घजीवन प्राप्त कराये।
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