ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराडुष्निक्
स्वरः - ऋषभः
यु॒वं व॑रो सु॒षाम्णे॑ म॒हे तने॑ नासत्या । अवो॑भिर्याथो वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । व॒रो॒ इति॑ । सु॒ऽसाम्णे॑ । म॒हे । तने॑ । ना॒स॒त्या॒ । अवः॑ऽभिः । या॒थः॒ । वृ॒ष॒णा॒ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं वरो सुषाम्णे महे तने नासत्या । अवोभिर्याथो वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । वरो इति । सुऽसाम्णे । महे । तने । नासत्या । अवःऽभिः । याथः । वृषणा । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू ॥ ८.२६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O virile and generous Ashvins, harbingers of showers of wealth and enlightenment, ever true and far from untruth, you go forward with your protections and promotions for the good and exhortation of the Sama celebrants and men of great and expansive philanthropy (who work for the advancement of society).
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने चांगल्या पुरुषांचे रक्षण करावे व देशभर भ्रमण करून त्यांची दशा जाणून घ्यावी व यथायोग्य प्रबंध करावा. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
राजकर्त्तव्यतान्तरमाह ।
पदार्थः
हे नासत्या=हे असत्यरहितौ ! हे वृषणा=हे वृषणौ ! हे वृषण्वसू=हे अश्विनौ ! युवम्=युवाम् । वरो=वरवे=श्रेष्ठाय । सुसाम्ने=शोभनगानकारिणे । महे=महते । तने=तनोतीति तनः=तननाय । अवोभिः=रक्षणैः सह । याथः=गच्छथः ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा का अन्य कर्त्तव्य कहते हैं ।
पदार्थ
(नासत्या) हे असत्यरहित (वृषणा) हे प्रजाओं में धनवर्षा करनेवाले (वृषण्वसू) हे वर्षणशीलधनयुक्त राजन् तथा मन्त्रिदल ! (युवम्) आप सब (वरो) श्रेष्ठ पुरुष (सुसाम्ने) सुन्दर गान करनेवाले (महे) महान् (तने) विद्या धनादि विस्तार करनेवाले इत्यादि, इस प्रकार के मनुष्यों के लिये (अवोभिः) पालन के साथ अर्थात् रक्षक सेनाओं के साथ (याथः) यात्रा करते हैं ॥२ ॥
भावार्थ
राजा को उचित है कि अच्छे पुरुषों की रक्षा करे और देश में भ्रमण कर उनकी दशाओं से परिचित हो यथायोग्य प्रबन्ध करे ॥२ ॥
विषय
राजा-सचिव
भावार्थ
हे ( नासत्या ) कभी असत्य भाषण और असत्याचरण न करने वाले, वा नासिकावत् प्रमुख पुरुषो ! हे ( वृषणा ) बलवान् ! वीर्यवान्, ( वृषण्वसू ) सुखप्रद, बलवान् धन, जन के स्वामियो ! हे ( वरो ) दोनों वरण करने योग्य, श्रेष्ठ जनो ! ( युवं ) आप दोनों ( सुषाम्णे ) सुखप्रदाता, निष्पक्षपात, सर्वोपरि विराजमान प्रभु के ( महे तने ) बङे विस्तृत राज्य में (अवोभिः ) रक्षासाधनों, ज्ञानों और रथादि से, ( याथः ) गमनागमन करो !
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वृषणा वृषण्वसू
पदार्थ
[१] हे (नासत्या) = असत्य से रहित अश्विनीदेवो-प्राणापानो ! (युवम्) = आप (उ) = निश्चय से (वरा) = वरने के योग्य हो। आपकी साधना ही मनुष्य का महान् कर्त्तव्य है। आप (सुषाम्णे) = उत्तम साम-शान्ति व उपासना वाले पुरुष के लिये महे तने शक्तियों के महान् विस्तार के लिये होते हो। [२] हे प्राणापानो! आप (वृषणा) = शक्तिशाली हो, (वृषण्वसू) = सुखवर्षक वसुओंवाले हो । (अवोभिः याथः) = सब रक्षणों के हेतु से आप हमें प्राप्त होते हो। शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति करके 'शरीर, मन व बुद्धि' का आप ही रक्षण करते हो।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य को इस जीवन में प्राणसाधना का ही वरण करना चाहिये। यही उसकी शक्तियों के विस्तार को करेगी। यही उसका सर्वथा रक्षण करेगी।
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