ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 15
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒स्मभ्यं॒ सु वृ॑षण्वसू या॒तं व॒र्तिर्नृ॒पाय्य॑म् । वि॒षु॒द्रुहे॑व य॒ज्ञमू॑हथुर्गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मभ्य॑म् । सु । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । या॒तम् । व॒र्तिः । नृ॒ऽपाय्य॑म् । वि॒षु॒द्रुहा॑ऽइव । य॒ज्ञम् । ऊ॒ह॒थुः॒ । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मभ्यं सु वृषण्वसू यातं वर्तिर्नृपाय्यम् । विषुद्रुहेव यज्ञमूहथुर्गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मभ्यम् । सु । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । यातम् । वर्तिः । नृऽपाय्यम् । विषुद्रुहाऽइव । यज्ञम् । ऊहथुः । गिरा ॥ ८.२६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lords of the yajnic showers of prosperity, come straight like an arrow, visit our hall of yajna dedicated to the good of humanity and guide and upraise our yajna with the holy chant of Vedic voice.
मराठी (1)
भावार्थ
राजवर्गाने प्रजेच्या कल्याणासाठी सदैव प्रयत्न करावेत. त्यांच्या साधनांसाठी आळस करू नये. कारण राजवर्ग प्रजेच्या रक्षणासाठीच नियुक्त केले गेलेले आहेत. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवानुवर्तते ।
पदार्थः
हे वृषण्वसू=हे धनवर्षितारौ ! अस्मभ्यम् । सुयातम् । नृपाय्यम्=नृभिर्नेतृभिः पालनीयम् । वर्तिर्गृहम् । सुयातम् । पुनः । विषुद्रुहा+इव=बाणेन इव । यथा वीरो बाणेन सहायेन रक्षति तथैव । गिरा=स्तुत्या । यज्ञम्=कर्म प्रजानाम् । युवाम् । ऊहथुः=वहतम् ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वृषण्वसू) हे धनवर्षिता अश्विद्वय ! (अस्मभ्यम्) हमारे कल्याण के लिये आप सब (सुयातम्) अच्छे प्रकार आवें और (नृपाय्यम्) मनुष्यों के रक्षणीय और आश्रय (वर्तिः) जो मेरे गृह और यज्ञशाला हैं, वहाँ आकर विराजमान होवें (विषुद्रुहा+इव) जैसे बाण की सहायता से वीर रक्षा करते हैं, वैसे ही (गिरा) स्तुतियों से प्रसन्न होकर (यज्ञम्) प्रजाओं के शुभकर्म की (उहथुः) रक्षा और भार उठावें ॥१५ ॥
भावार्थ
राजवर्ग को उचित है कि प्रजाओं के कल्याणार्थ सदा चेष्टा करें, उनके साधनों में आलस्य न करें, क्योंकि राजवर्ग प्रजाओं की रक्षा के लिये ही नियुक्त किये गये हैं ॥१५ ॥
विषय
दिन-रात्रिवत् पति-पत्नी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृषण्वसू ) बलवान् पुरुषों के स्वामी जनो ! हे प्रजाजनों में बलवान् प्रबन्धक जनो ! आप दोनों ( अस्मभ्यम् ) हमारे हितार्थं ही ( नृ-पाय्यं ) मनुष्यों के पालन करने वाले ( वर्त्तिः ) व्यवहार को ( सु-यातम् ) अच्छी प्रकार प्राप्त करो। जिस प्रकार (वि-सु-द्रुहा, विषु = द्रुहा गिरा यज्ञम् इव ) विविध अर्थदात्री या विविध वादप्रतिवाद वाली वाणी से जिस प्रकार ( यज्ञम् ) उपास्य प्रभु की तर्क द्वारा विवेचना की जाती है उसी प्रकार ( वि-सु-द्रुहा इव ) विविध प्रकार के परस्पर काटने वाली, विवादग्रस्त, एक दूसरे का प्रतिवाद करने वाली ( गिरा ) वाणी से ( यज्ञम् ) प्राप्त करने योग्य निर्णय रूप से देने योग्य सत्य तत्व को ( उहथुः ) तर्क वितर्क द्वारा प्राप्त करो । इत्यष्टविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना व प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] (असम्भ्यम्) = हमारे लिये हे (वृषण्वसू) = सुखों के वर्षणशील धनोंवाले प्राणापानो! आप (नृपाय्यम्) = उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले आप द्वारा पातव्य सोम का लक्ष्य करके (वर्ति:) = हमारे शरीर गृह को (सुयातम्) = सम्यक् प्राप्त होवो। हमारे शरीर गृह में प्राणापान की साधना चलेगी तो सोम का भी रक्षण होगा और सोमरक्षण द्वारा सब सुख वर्षक धन प्राप्त होंगे। [२] हे प्राणापानो! जैसे (विषुद्रुहा) = [विसु द्रुहन्ति अनेन] शर के द्वारा व्याध मृग को अपने समीप प्राप्त कराता है, इसी प्रकार हे प्राणापानो! आप (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के साथ (यज्ञम्) = उस उपासनीय प्रभु को (ऊहथुः) = हमारे समीप प्राप्त कराते हो। प्राणसाधना से ज्ञानवृद्धि होती है और विवेकख्याति के द्वारा आत्मदर्शन होता है। यह साधक प्राणों द्वारा मन को वशीभूत करके आत्मदर्शन करनेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से ज्ञानवृद्धि होकर उस उपासनीय प्रभु का दर्शन होता है।
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