ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 21
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - वायु:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तव॑ वायवृतस्पते॒ त्वष्टु॑र्जामातरद्भुत । अवां॒स्या वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । वा॒यो॒ इति॑ । ऋ॒तः॒ऽप॒ते॒ । त्वष्टुः॑ । जा॒मा॒तः॒ । अ॒द्भु॒त॒ । अवां॑सि । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव वायवृतस्पते त्वष्टुर्जामातरद्भुत । अवांस्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठतव । वायो इति । ऋतःऽपते । त्वष्टुः । जामातः । अद्भुत । अवांसि । आ । वृणीमहे ॥ ८.२६.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vayu, protector and keeper of the universal law of truth and wonderful valuer and refiner of the creations of Tvashta, maker of all fine and gross things of life and destroyer of dangers internal and external, we opt for and choose all your plans and modes of peace, defence and security.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरीय व राजकीय दोन्ही नियमांचे पालन करणारे व सूक्ष्म कार्यसाधक जे महावीर आहेत ते सेनानायक होण्यायोग्य असतात. ॥२१॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्य गुणान् प्रकटयति ।
पदार्थः
हे ऋतस्पते=सत्यपालक ! त्वष्टुः=सूक्ष्मकार्य्यस्य । जामातः=जनयितः=निर्मातश्च । हे अद्भुत ! ते=तव । अवांसि=पालनानि । आवृणीमहे ॥२१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उसके गुण प्रकट करते हैं ।
पदार्थ
(ऋतस्पते) ईश्वर के सत्यनियमों को पालनेवाले (त्वष्टुः+जामातः) सूक्ष्म से सूक्ष्म कार्य्य के पैदा और निर्माण करनेवाले (अद्भुत) हे आश्चर्यकार्य्यकारी सेनानायक ! (ते+अवांसि+आवृणीमहे) हम सकलजन आपकी रक्षाओं के प्रार्थी हैं ॥२१ ॥
भावार्थ
ईश्वरीय और राजकीय दोनों नियमों को पालन करनेवाले तथा सूक्ष्मकार्यसाधक, जो वीर महावीर वे सेनानायक-योग्य होते हैं ॥२१ ॥
विषय
भावी जामाता के प्रति आदर।
भावार्थ
हे ( वायो ) जलपालक ! आकाश गतवायु के समान ( ऋतः-पते ) सत्यज्ञान, धन, यज्ञ और तेज के पालक ! हे ( अद्भुत ) अभूतपूर्व आश्चर्यजनक ! ( जामातः ) प्रजादि के उत्पन्न करने हारे ! हे ( वायो ) वायुवत् प्राणप्रद ! बलवन् ! सर्वगत ! हम ( त्वष्टुः तव ) सूर्यवत् देदीप्यमान, जगत् के कर्त्ता तेरे ( अवांसि ) ज्ञानों, रक्षाओं, तृप्ति आनन्द-दायक सुखों की (वृणीमहे) प्रार्थना याचना करते हैं। (२) हे ज्ञानवन् बलवन् ! अभूतपूर्व जामातः ! अविवाहितनवयुवक ! हम तेरे ( अवांसि ) सुखदायक आगमनों को चाहते हैं। श्वशुर सदा कन्या के लिये अभूतपूर्व अविवाहित जमाई को ही चाहे, वही 'त्वष्टा', प्रजा का उत्पादक होवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्वो वाङ्गिरस ऋषिः॥ १—१९ अश्विनौ। २०—२५ वायुदेवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ६, ७ उष्णिक्। २, ८, २३ विराडुष्णिक्। ५, ९—१५, २२ निचृदुष्णिक्। २४ पादनिचृदुष्णिक्। १६, १९ विराड् गायत्री। १७, १८, २१ निचृद् गायत्री। २५ गायत्री। २० विराडनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
त्वष्टा का जामाता [वायु]
पदार्थ
[१] हे (वायो) = वायुदेव ! हम (तव) = आपके (आवांसि) = रक्षणों को (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं। सदा शुद्ध वायु के सम्पर्क में होते हुए, शुद्ध वायु में प्राणायाम करते हुए, सब शक्तियों का रक्षण कर पाते हैं। [२] हे वायो ! आप (ऋतस्पते) = रेत: कण रूप जलों के रक्षक हो, प्राणायाम के द्वारा इन शक्तिकणों की ऊर्ध्वगति होती है। (त्वष्टुः जामातः) = संसार के निर्माता प्रभु की पुत्री के तुम रक्षक हो । वायु हमारे जीवनों में 'संज्ञा' का रक्षण करती है, वायु के बन्द होते ही चेतना समाप्त हो जाती है। अद्भुत हे वायो ! हमारे जीवनों के लिये तुम अद्भुत ही हो, वस्तुतः तुम्हीं जीवन हो ।
भावार्थ
भावार्थ- वायु शरीर में रेतःकण रूप जलों का रक्षक है। जीवन में इसका अद्भुत ही स्थान है ।
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