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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒ग्निं सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं दा॒नाय॒ वार्या॑णाम् । द्वि॒ता यो भूद॒मृतो॒ मर्त्ये॒ष्वा होता॑ म॒न्द्रत॑मो वि॒शि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । सू॒नुम् । सह॑सः । जा॒तऽवे॑दसम् । दा॒नाय॑ । वार्या॑णाम् । द्वि॒ता । यः । भूत् । अ॒मृतः॑ । मर्त्ये॑षु । आ । होता॑ । म॒न्द्रऽत॑मः । वि॒शि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं सूनुं सहसो जातवेदसं दानाय वार्याणाम् । द्विता यो भूदमृतो मर्त्येष्वा होता मन्द्रतमो विशि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । सूनुम् । सहसः । जातऽवेदसम् । दानाय । वार्याणाम् । द्विता । यः । भूत् । अमृतः । मर्त्येषु । आ । होता । मन्द्रऽतमः । विशि ॥ ८.७१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let our prayers reach Agni, all pervasive creator of energy, for the gift of cherished wealth and power. Agni is the immortal presence who appears among mortals in both physical and spiritual forms, universal yajaka, happiest and most blissful, arising in every home stead of the people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी तो (ईश) स्वत: कर्मानुसार आनंद देत आहे, तरीही आपापल्या इच्छापूर्तीसाठी त्याची प्रत्येक दिवशी प्रार्थना करावी ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! सहसः=जगतः । सूनुं=जनयितारम् । जातवेदसम्=जातं जातं वेत्तीति=सर्वज्ञमित्यर्थः । ईदृशमिममग्निम् । वार्य्याणां=वरणीयानां धनानाम् । दानाय । अस्माकं गिरो यन्त्विति अनुवर्तते । यश्च । द्विता=द्विप्रकारोऽभूद्=दृश्यते । एकस्तु अमृतः । आ=पुनः । मर्त्येषु । होता । विशि । मन्द्रतमः=अतिशयेन आनन्दयिता ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सहसः) इस जगत् का (सूनुम्) उत्पादक (जातवेदसम्) सर्वज्ञ (अग्निम्) और सर्वाधार सर्वव्यापी ईश की ओर हम लोगों की स्तुति प्रार्थना जाएँ, जिससे कि (वार्य्याणां+दानाय) उत्तमोत्तम सुखप्रद सम्पत्तियों का दान प्राप्त हो और (यः) जो (द्विता) दो प्रकार से भासित होता है । सूर्य्य, चन्द्र, पृथिवी आदि देवों में वह (अमृतः) अमृतरूप होकर व्याप्त है (मर्त्येषु+आ) और मनुष्यों में (होता) दानदाता और (विशि) गृह-गृह में (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्दप्रद हो रहा है ॥११ ॥

    भावार्थ

    यद्यपि वह स्वयं कर्मानुसार आनन्द दे रहा है, तथापि अपनी-अपनी इच्छापूर्त्ति के लिये उसकी प्रार्थना प्रतिदिन करे ॥११ ॥

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    विषय

    नायक के दो प्रकार के रूप।

    भावार्थ

    ( सहसः सूनुं ) बल के उत्पादक वा प्रेरक, ( जात-वेदसं ) प्रज्ञावान्, ऐश्वर्यवान्, ( अग्निं ) अग्नि, नायक को मैं ( वार्याणां दानाय ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ धनदान करने के लिये जानूं। ( यः ) जो (मर्त्येषु ) मरणधर्मा मनुष्यों में भी (अमृतः) अमर ( भूत् ) होता है और (विशि) प्रजाओं में ( मन्द्रतमः ) अति हर्ष युक्त और ( होता ) ज्ञानादि का दाता होता है इस प्रकार ( द्विता ) उसके ये दो रूप होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्विता, अमृत: होता मन्द्रतमः

    पदार्थ

    [१] हमारी स्तुतिवाणियाँ [गिरः यन्तु = ] उस प्रभु की ओर प्राप्त हों जो (अग्निं) = अग्रणी हैं, (सहसः सूनुं) = बल के पुत्र-पुतले - पुञ्ज हैं, (जातवेदसं) = सर्वज्ञ व सर्वधन हैं। उस प्रभु को हमारी स्तुतिवाणियाँ प्राप्त हों, जिससे प्रभु (वार्याणाम् दानाय) = वरणीय धनों के देने के लिए हैं। [२] उस प्रभु का हम स्तवन करें (यः) = जो (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (द्विता) = [द्वौ तनोति] दो का, ज्ञान व शक्ति का विस्तार करनेवाले (भूत्) = होते हैं। वे प्रभु (विशि) = सब प्रजाओं में (आ होता) = समन्तात् देनेवाले होते हैं, तथा (अमृतः) = नीरोगता को देनेवाले व (मन्द्रतमः) = [मादयितृतमः] अतिशयेन आनन्दित करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें ज्ञान देंगे व शक्ति देंगे। प्रभु होता, अमृत व मन्द्रतम हैं।

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