ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
न॒हि म॒न्युः पौरु॑षेय॒ ईशे॒ हि व॑: प्रियजात । त्वमिद॑सि॒ क्षपा॑वान् ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । म॒न्युः । पौरु॑षेयः । ईशे॑ । हि । वः॒ । प्रि॒य॒ऽजा॒त॒ । त्वम् । इत् । अ॒सि॒ । क्षपा॑ऽवान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि मन्युः पौरुषेय ईशे हि व: प्रियजात । त्वमिदसि क्षपावान् ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । मन्युः । पौरुषेयः । ईशे । हि । वः । प्रियऽजात । त्वम् । इत् । असि । क्षपाऽवान् ॥ ८.७१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
No wrath of man rules over you, all time dear friend of humanity, since your very birth you are the master and ruler of the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच पृथ्वीश्वर आहे. त्यामुळे त्याच्यावर माणसाचा प्रभाव पडू शकत नाही. परंतु त्याचा प्रभाव माणसांवर पडतो, कारण तो क्षपावान=पृथ्वीश्वर आहे. कुणी या शब्दाचा अर्थ रात्री = स्वामीही करतात. क्षपा = रात्री ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे सर्वशक्ते ! हे प्रियजात=जातानां प्राणिनां प्रिय ! वस्तवोपरि । पौरुषेयः । मन्युः=पुरुषसम्बन्धी क्रोधः । नहि+ ईशे । यतस्त्वमिदसि=त्वमेवासि । क्षपावान्=क्षमावान्= पृथिवीश्वरः ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(प्रियजात) हे सर्वप्राणियों के प्रिय सर्वशक्ते जगदीश ! (वः) तेरे ऊपर (पौरुषेयः+मन्युः) मनुष्यसम्बन्धी क्रोध (नहि+ईशे) अपना प्रभाव नहीं डाल सकता, क्योंकि (त्वम्+इत्) तू ही (क्षपावान्+असि) पृथिवीश्वर है ॥२ ॥
भावार्थ
जिस कारण परमात्मा ही पृथिवीश्वर है, अतः उसके ऊपर मनुष्य का प्रभाव नहीं पड़ सकता, किन्तु उसका प्रभाव मनुष्यों के ऊपर पड़ता है, क्योंकि वह क्षपावान्=पृथिवीश्वर है । कोई इस शब्द का अर्थ रात्रिस्वामी भी करते हैं । क्षपा=रात्रि ॥२ ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( प्रिय-जात ) उत्पन्न बालकवत् प्रजाओं को तृप्त करने हारे राजन् ! ( वः ) तुझ पर ( पौरुषेयः मन्युः ) मनुष्यों का क्रोध भी ( नहि ईशे ) नहीं वश कर सकता। ( त्वम् इत् क्षपावान् असि ) तू ही शत्रुओं का नाश कर देने वाली भारी सेनादि का स्वामी ( असि ) है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'पौरुषेय मन्यु' से अनाक्रान्त
पदार्थ
[१] हे (प्रियजात) = [ प्रियेषु जातः] यज्ञादि द्वारा आपका प्रीणन करनेवालों में प्रादुर्भूत होनेवाले प्रभो! (पौरुषेय मन्युः) = पुरुषों में आ जानेवाला क्रोध (हि) = निश्चय से (वः) = आपके उपासकों को (नहि ईशे) = अपने अधीन नहीं कर लेता-क्रोध उनका स्वामी नहीं बन जाता। [२] (त्वम् इत्) = आप ही वस्तुतः (क्षपावान् असि) = सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं को परे फेंकनेवाले हैं। आप ही इन्हें हमारे से दूर करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासन हमें क्रोध के आक्रमण से बचाए ।
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