ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 12
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अ॒ग्निं वो॑ देवय॒ज्यया॒ग्निं प्र॑य॒त्य॑ध्व॒रे । अ॒ग्निं धी॒षु प्र॑थ॒मम॒ग्निमर्व॑त्य॒ग्निं क्षैत्रा॑य॒ साध॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । वः॒ । दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑ । अ॒ग्निम् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । अ॒ग्निम् । धी॒षु । प्र॒थ॒मम् । अ॒ग्निम् । अर्व॑ति । अ॒ग्निम् । क्षैत्रा॑य । साध॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं वो देवयज्ययाग्निं प्रयत्यध्वरे । अग्निं धीषु प्रथममग्निमर्वत्यग्निं क्षैत्राय साधसे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । वः । देवऽयज्यया । अग्निम् । प्रऽयति । अध्वरे । अग्निम् । धीषु । प्रथमम् । अग्निम् । अर्वति । अग्निम् । क्षैत्राय । साधसे ॥ ८.७१.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Adore Agni for all your service of the divinities of nature and humanity, light agni in the process of every holy programme, keep Agni in the fore-front in all your acts of thought and will initially, and in every new beginning serve and rely on Agni for every plan in the field of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व वस्तूंच्या प्राप्तीसाठी सर्वकाळी त्याचीच स्तुती प्रार्थना केली पाहिजे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वः=यूयम् । अत्र प्रथमार्थे द्वितीया । देवयज्यया=देवयागेन निमित्तेन । अग्निमग्निनामानमीशम् । स्तुत । अध्वरे+प्रयति=प्रकर्षेण गच्छति सति । अग्निं गायत । धीषु=सर्वेषु कर्मसु प्रथममग्निं प्रशंसत । अर्चति=गमनसमये । अग्निं स्मरत । क्षैत्राय+साधसे=क्षेत्रसाधनाय च । तमेवाग्निं याचध्वम् ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (वः) आप लोग (देवयज्यया) देवयजनार्थ (अग्निम्) उस परमदेव की स्तुति कीजिये, (अध्वरे+प्रयति) यज्ञ के समय में भी (अग्निम्) उस परमात्मा का गान कीजिये, (धीषु) निखिल शुभकर्मों में या बुद्धि के निमित्त (प्रथमम्+अग्निम्) प्रथम अग्नि को ही स्मरण कीजिये, (अर्वति) यात्रा के समय (अग्निम्) ईश्वर का ही स्मरण कीजिये, (क्षैत्राय+साधसे) क्षेत्र के साधनों के लिये (अग्निम्) उसी ईश से माँगिये ॥१२ ॥
भावार्थ
सब वस्तु की प्राप्ति के लिये सब काल में उसी की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिये ॥१२ ॥
विषय
देववत् पूज्य अग्नि परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! ( वः ) आप लोगों के प्रति मैं ( देव-यज्यया ) परमेश्वर की पूजा के रूप में ( अग्निं ) अग्नि का उपदेश करता हूं। (प्रयति अध्वरे) यज्ञ के प्रवृत्त होने पर भी ( अग्निं ) अग्नि का आश्रय लो। (धीषु ) सब कामों में ( प्रथमम् ) सर्व प्रथम ( अग्निं ) इस ज्ञानवान् प्रभु का स्मरण करो। ( अर्वति अग्निं ) वेगवान् अश्व स्थादि के निमित्त भी अग्नि का प्रयोग जानो। (क्षेत्राय साधसे) क्षेत्र अर्थात् देह में रहने वाले आत्मा की प्राप्ति या ज्ञान करने के लिये भी ( अग्निम् ) अग्नि को ही दृष्टान्त रूप से जानें।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
क्षैत्राय साधसे
पदार्थ
[१] (वः) = तुम्हारे (देवयज्यया) = दिव्यगुणों के संगतिकरण के हेतु से (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को स्तुत करता हूँ। इस (प्रयति अध्वरे) = चल रहे जीवनयज्ञ में प्रभु का स्तवन करता हूँ। वस्तुतः प्रभु स्तवन ही जीवन को यज्ञमय बनाता है। [२] (धीषु) = बुद्धियों के निमित्त उस (प्रथमं अग्निं) = सर्वमुख्य प्रभु को स्तुत करता हूँ 'धियो यो नः प्रचोदयात् '। (अर्वति) = शत्रुओं के संहार के निमित्त (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को स्तुत करता हूँ। (क्षैत्राय) = इस शरीर - क्षेत्र सम्बन्धी (साधसे) = साधना के लिए- शरीर को पूर्णरूप से स्वस्थ रखने के लिए (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को स्तुत करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन ही हमें दिव्यगुणों से सम्पृक्त करेगा, इसी से जीवन यज्ञमय बनेगा, बुद्धि प्रशस्त होगी, शत्रुओं का संहार होगा व शरीररूप क्षेत्र की साधना पूर्ण होगी।
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