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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒ग्निमी॑ळि॒ष्वाव॑से॒ गाथा॑भिः शी॒रशो॑चिषम् । अ॒ग्निं रा॒ये पु॑रुमीळ्ह श्रु॒तं नरो॒ऽग्निं सु॑दी॒तये॑ छ॒र्दिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । ई॒ळि॒ष्व॒ । अव॑से । गाथा॑भिः । शी॒रऽशो॑चिषम् । अ॒ग्निम् । रा॒ये । पु॒रु॒ऽमी॒ळ्ह॒ । श्रु॒तम् । नरः॑ । अ॒ग्निम् । सु॒ऽदी॒तये॑ । छ॒र्धिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमीळिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम् । अग्निं राये पुरुमीळ्ह श्रुतं नरोऽग्निं सुदीतये छर्दिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । ईळिष्व । अवसे । गाथाभिः । शीरऽशोचिषम् । अग्निम् । राये । पुरुऽमीळ्ह । श्रुतम् । नरः । अग्निम् । सुऽदीतये । छर्धिः ॥ ८.७१.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pray to Agni of bright flames with songs and praise for protection and progress. O generous scholar, study and serve Agni for wealth, famous among people, Agni who provides home and happiness for the man of brilliance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो ईश्वर प्राणिमात्राला निवास व भोजन देत आहे त्याची स्तुती प्रार्थना आम्ही माणसांनी करावी. ॥१४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! अवसे=साहाय्यार्थम् । गाथाभिः=स्तुतिभिः । अग्निमीळिष्व । स्तुहि । कीदृशम् । शीरशोचिषम्= व्याप्ततेजस्कम् । हे पुरुमीळ्ह=बहुसन्तोषवर्षिन् विद्वन् ! राये । अग्निमीळिष्व । अन्येऽपि नरः=नराः । श्रुतं=प्रसिद्धमग्निम् । स्तुवन्तः । सुदीतये=जनाय । छर्दिर्गृहं ददातु ॥१४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (अवसे) अपनी रक्षा और साहाय्य के लिये (गाथाभिः) स्तुतियों के द्वारा (अग्निम्) सर्वाधार परमात्मा की (ईळिष्व) स्तुति करो, (शीरशोचिषम्) जिसका तेज सर्वत्र व्याप्त है । (पुरुमीळ्ह) हे बहुतों को सन्तोषप्रद विद्वन् ! (राये) समस्त सुख की प्राप्ति के लिये (अग्निम्) ईश्वर की स्तुति करो । (नरः) इतर जन भी (श्रुतम्) सर्वत्र विख्यात (अग्निम्) उस परमात्मा की स्तुति करें, जो (सुदीतये) प्राणिमात्र को (छर्दिः) निवास देता है ॥१४ ॥

    भावार्थ

    जो ईश्वर प्राणिमात्र को निवास और भोजन दे रहा है, उसकी स्तुति प्रार्थना हम मनुष्य करें ॥१४ ॥

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    विषय

    देववत् पूज्य अग्नि परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( पुरुमीढ ) बहुत धनों के दातः ! बहुतों पर वर्षाने हारे ! तू ( गाथाभिः ) गान योग्य वेद वाणियों द्वारा ( शीर-शोचिषम् अग्निम् ) व्यापक तेज वाले अग्रणी, नायक, ज्ञानी प्रभु की ही ( ईडिष्व ) स्तुति कर। (राये ) धनैश्वर्य की वृद्धि के लिये भी ( श्रुतं ) बहुश्रुत विद्वान् अग्नि की ( ईडिष्व ) स्तुति कर और ( नरः ) मनुष्यगण भी उसी (अग्निं) तेजस्वी की स्तुति करते हैं। वह ( सुदीतये छर्दिः ) उत्तम तेज वाले के लिये भी दीपक के लिये गृह के समान आश्रय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुदीतये छर्दिः

    पदार्थ

    [१] (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिए (गाथाभिः) = स्तुतिवाणियों के द्वारा (ईडिष्व) = उपासित कर । हे (पुरुमीढ) = खूब ही शक्ति का अपने में सेचन करनेवाले उपासक ! तू (राये) = ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए (शीरशोचिषं) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाली ज्ञानदीप्तिवाले (श्रुतं) = उस प्रसिद्ध (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को उपासित कर । [२] हे (नरः) = मनुष्यो ! (अग्निः) = ये अग्रणी प्रभु (सुदीतये) = उत्तम दीप्तिवाले नर के लिए खूब ज्ञान को प्राप्त करनेवाले मनुष्य के लिए (छर्दिः) = शरणस्थान व गृह हैं। सुदीति को वे प्रभु शरण देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तुतिवाणियों से प्रभु का अर्चन करें। प्रभु ही हमें ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही ज्ञानदीप्तिवाले के लिए शरणस्थान हैं।

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